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[ २ ] ग्रंथ जाली तथा बनावटी हैं और इनका अवतार कुछ क्षुद्र पुरुषों अथवा तस्कर लेखकों द्वारा आधुनिक भट्टारकी युग में हुआ है । इस लेखमाला ने समाज को जो नया सन्देश सुनाया, जिस भूल तथा ग्रफ़लत का अनुभव कराया, अन्धश्रद्धा की जिस नींद से उसे जगाया और उसमें जिस विचारस्वातंत्र्य तथा तुलनात्मक पद्धति से ग्रंथों के. अध्ययन को उत्तेजित किया, उसे यहाँ बतलाने की ज़रूरत नहीं है, उसका अच्छा अनुभव उक्त लेखों के पढ़ने से ही सम्बंध रखता है । हाँ इतना जरूर बतलाना होगा कि इस प्रकार की लेखमाला उस वक्त जैन समाज के लिये एक बिलकुल ही नई चीज़ थी, इसने उसके विचार वातावरण में अच्छी क्रान्ति उत्पन्न की, सहृदय विद्वानों ने इसे खुशी से अपनायां, इसके अनेक लेख दूसरे पत्रों में उद्धृत किये गये, अनुमोदन किये गये, मराठी में अनुवादित हुए और अलग. पुस्तकाकार भी छपाये गये * । स्थाद्वादवारिधि पं० गोपालदासजी वरैय्या ने, जिनसेन त्रिवर्णाचार की परीक्षा के बाद से, त्रिवर्णाचारों को अपने विद्यालय के पठनकम से निकास दिया और दूसर विचारशील विद्वान् भी उस वक्त से बराबर अपने कार्य तथा व्यवहार के द्वारा उन लेखों की उपयोगितादि को स्वीकार करते अथवा उनका अभिनंदन करते आ रहे हैं। और यह सब उक्त लेखमाला, की सफलता का अच्छा परिचायक है। उस वक्त-जिनसेन त्रिवर्णाचार की परीक्षा लिखते समय मैंने यह प्रगट किया था कि 'सोमसेन-त्रिवर्णाचार की परीक्षा भी एक स्वतंत्र लेख द्वारा की जायगी' । परंतु खेद है कि अनवकाश के कारण इच्छा रहते भी, मुझे आज तक उसकी परीक्षा
बम्बई के जैन ग्रन्धरनाकर कार्यालय ने 'ग्रन्थ परीक्षा प्रथम भाग और द्वितीय भाग नाम से, पहले चार ग्रन्थों के लेखों को दो भागों में छाप करप्रकाशित किया है और उनका खागत मूल्य क्रमशः
छह माने तथा चार प्राने रक्खा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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