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________________ [ ६२ ] श्रयं मंत्रो महामंत्रः सर्वपापविनाशकः । अष्टोत्तरशतं जप्तो धर्ते कार्याणि सर्वशः ॥ ८४ ॥ इस पद्य में जिस मंत्र को सर्वपापविनाशक महामंत्र बतलाया है और जिसके १०८ बार जपने से सर्व प्रकार के कार्यों की सिद्धि होना लिखा है वह मंत्र कौनसा है उसका इस पद्य से अथवा इसके पूर्ववर्ती पद्य से कुछ भी पता नहीं चलता । ' ॐनमः सिद्धं ' नाम का वह मंत्र तो हो नहीं सकता जो ८२ वें पद्य में वर्णित है; क्योंकि उसके सम्बन्ध का : ३ वें पद्य द्वारा विच्छेद हो गया है । यदि उस से अभिप्राय होता तो यह पद्य ' इत्थं मंत्रं ' नामक ८३ वें पद्य से पहले दिया जाता । अतः यह पद्म यहाँ पर असम्बद्ध है । सोनीजी कहते हैं इसमें 'अपराजित मंत्र' का उल्लेख है । पैंतीस अक्षरों का अपराजित मंत्र ( 'मो अरहंताणं' आदि ) बेशक महामंत्र है और वह उन सत्र गुणों से विशिष्ट भी है जिनका इसमें उल्लेख किया गया है परन्तु उससे यदि अभिप्राय था तो यह पथ ' अपराजित् मंत्रीऽयं ' नामक ८० वें पद्य के ठीक बाद दिया जाना चाहिये था । उसके बाद ' षोडशाक्षर विद्या' तथा 'ॐ नमः सिद्धं' नामक दो मंत्रों का और विधान बीच में हो चुका है, जिससे इस पद्य में प्रयुक्त हुए 'अ' (यह) पद का वाच्य अपराजित मंत्र नहीं रहा । और इस लिये अपराजितमंत्र की दृष्टि से यह पद्य यहाँ और भी असम्बद्ध है और वह भट्टारकजी की रचनाचातुरी का भण्डाफोड़ करता है । इस पद्य के बाद पाँच पद्य और हैं जो इससे भी ज्यादा असम्बद्ध हैं और वे इस प्रकार हैं: — हिंसा नृतान्यदारेच्छा चुरा चातिपरिग्रहः । अमूनि पंच पापानि दुःखदायीनि संसृतौ ॥ ६५ ॥ अष्टोत्तरशतं भेदास्तेषां पृथगुदाहृताः । हिंसा तत्र कृता पूर्व करोति व करिष्यति ॥ ८६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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