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[ ६३ ] मनोवचन काय ते तु त्रिगुणिता नव । पुनः स्वयं कृतकारितानुमोदैर्गुखाद्दतिः ॥ ८७ ॥ सप्तविंशतिस्ते भेदाः कषायैर्गुणयेश्वतान् । अष्टोत्तरशतं ज्ञेयमसत्यादिषु तादृशम् ॥ ८ ॥ पृथ्वी पानीयतेजः पवनसुतरवः स्थावराः पंचकायाः । नित्यानित्यो निगोदौ युगलशिचिचतुः संश्यसंशित्रसाः स्युः । पते प्रोता जिनेद्वादश परिगुणिता वाङ्मनः कायमेदैस्ते चान्यैः कारिताद्यैस्त्रिभिरपि गुणिताचा टशन्यैकसंख्याः ॥८६॥ इन पद्मों में से पहले पद्म में हिंसादिक पंच पापों के नाम देकर लिखा है कि 'ये पाँचों पाप संसार में दुःखदायी है' और इसके बाद खीन पबों में यह बतलाया है कि इन में से प्रत्येक पाप के १०८ भेद हैं। जैसे हिंसा पहले की, अत्र करता है, आगे करेगा ऐसे तीन भेद हुए; इनको मन-वचन-काय से गुणने पर है भेद; कृत-कारित अनुमोदना से गुणने पर २७ भेद और फिर चार कषायों से गुणने पर १०० भेद हिंसा के हो जाते हैं । इसी तरह पर असत्यादिक के भेद जानने । और पाँचवे पद्म में हिंसादिक का कोई विकल्प उठाए बिना ही दूसरे प्रकार से १०८ भेदों को सूचित किया है - लिखा है 'पृथ्वी, आप, वायु, वृक्ष, (वनस्पति) ऐसे पाँच स्थावर काय, नित्य निगोद, अनित्य निगोद, द्वीद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञिपंचेन्द्रिय, और सांईपंचेद्रिय ऐसे बारह भेद* जिनेंद्र भगवान ने कहे हैं। इनको मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदना, से गुणने पर १०८ भेद हो जाते हैं' ।
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*ये बारह मेद भगवान ने किसके कहे है- जीवों के, जीवहिंसा के या असत्यादिक के, ऐसा यहाँ पर कुछ भी नहीं दिखा। और न यही बतलाया कि ये पिछले मेद यदि जिनेंद्र भगवान के कहे हुए हैं तो पहले मेद किसके कहे हुए है अथवा दोनों का ही कथन विकल्प रूपसे भगवान का किया हुआ है।
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