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________________ [११] त्रिभुवनजनमोहकरी विद्येयं प्रणवपूर्वनमनान्ता । एकाक्षरीति संशा जगतः फलदायिनी नित्यम् ॥ ७३ ।। यहाँ 'ह्रीं' पद में हकार को पार्श्वनाथ भगवान का, नीचे के रकार को तलगत धरणेन्द्र का और विन्दुसहित ईकार को पद्मावती का वाचक बतलाया है- अर्थात् , यह प्रतिपादन किया है कि यह 'ही' मंत्र धरणेद्र पद्मावती सहित पार्श्वनाथ जिनेंद्र का द्योतक है। साथ ही, इसके पूर्व में 'ॐ' और अंत में 'नमः' पद लगा कर 'ॐ ही नमः' ऐसा जप करने की व्यवस्था की गई है, और उसे त्रिभुवन के लोगों को मोहित करने वाली 'एकाक्षरी विद्या' लिखा है । परंतु ज्ञानार्णव में इस मंत्र का ऐसा कोई विधान नहीं है-उसमें कहीं भी नहीं लिखा कि 'ही' पद धरणेद्रपद्मावतीसहित पार्श्व जिन का वाचक है अथवा 'ॐ ह्रीं नमः' यह एकाक्षरी विद्या है और इसलिये भट्टारकजी का मह सब कथन ज्ञानार्णव-सम्मत न होने से उनकी प्रतिज्ञा के विरुद्ध है। (ई) इसी तरह पर भट्टारकजी ने एक दूसरे मंत्र का विधान भी निम्न प्रकार से किया है: ॐनमः सिद्धमित्यतन्मंत्रं सर्वसुखप्रदम् । जपतां फलतीहे, स्वयं स्वगुणगँभितम् ॥ ८२ ।। इसमें ' ॐनमः सिद्धं ' मंत्र के जाप की व्यवस्था की गई है और उसे सर्व सुखों का देने वाला तथा इष्ट फल का दाता लिखा है। यह मंत्र भी ज्ञानार्णव में नहीं है। अतः इसके सम्बन्ध में भी भट्टारकजी का प्रतिज्ञाविरोध पाया जाता है । इस पद्य के बाद ग्रंथ में, 'इत्थं मंत्रं स्मरति सुगुणं यो नरःसर्वकालं' (८३) नामक पब के द्वारा आम तौर पर मंत्र स्मरण के फल का उल्लेख करके, एक पर निम्न प्रकार से दिया है।Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034833
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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