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( २४ ) हो गया, पर कुछ अन्शोंमें हिंसात्मक प्रवृत्तिके बिना जीवित रहना तथा अपना तन्त्र चलाना तो उसके लिए भी सम्भव न था। क्योंकि किसी भी छोटे या बड़े समग्र समाजमें पूर्ण अहिंसाकी पालना होना असम्भव है । इसीसे जैनसमाजके इतिहासमें भी हमें प्रवृत्तिके विधान तथा विशेष प्रसंग उपस्थित होनेपर त्यागी भिक्षुके हाथसे हुए हिंसाप्रधान युद्ध देखने को मिलते हैं। इतना सब कुछ होने पर भी जैनसंस्कृतिका वैदिक संस्कृतिसे भिन्न स्वरूप स्थिर ही रहा है और वह यह कि जैन संस्कृति प्रत्येक प्रकारकी व्यक्तिगत या समष्टिगत हिंसाको निर्बलताका चिह्न मानती है और इसलिए इस प्रकारकी प्रवृत्तिको अन्तमें वह प्रायश्चित्तके योग्य समझता है। वैदिक संस्कृति ऐसा नहीं मानतो । व्यक्तिगतरूपसे अहिंसातत्त्व के विषय में उसकी मान्यता जैनसंस्कृतिके समान ही है, परन्तु समष्टिकी दृष्टिसे वह स्पष्ट घोषणा करती है कि हिंसा निर्बलताका ही चिह्न है, यह ठीक नहीं, बल्कि विशेष अवस्थामें तो वह बलवान्का चिह्न है, आवश्यक है, विधेय है, अतएव विशेष प्रसंग पर वह प्रायश्चित्त के योग्य नहीं है। लोकसंग्रहकी यही वैदिक-भावना सर्वत्र पुराणोंके अवतारों में और स्मृति ग्रन्थोंके लोकशासनमें हमें दिखलाई देती है। ___ इसी भेदके कारण ऊपर वर्णन किये हुए दोनों महापुरुषों के जीवनकी घटनाओंका ढाँचा एक होने पर भी उसका रूप और झुकाव भिन्न भिन्न है । जैनसमाजमें गृहस्थोंकी अपेक्षा त्यागीवर्गकी संख्या बहुत कम है । फिर भी समस्त समाज पर (योग्य या अ. योग्य, विकृत या अविकृत ) अहिंसाकी जो छाप लगी हुई है, और वैदिक समाजमें परिव्राजक वर्ग अच्छी संख्यामें होने पर भी उस समाज पर पुरोहित गृहस्थवर्गकी चातुर्वर्णिक लोकसंग्रहवाली वृत्ति
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