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( २३ ) महिमाकी ओर अमुक लोकसमूह मुका जो धीरे धीरे एक समाज के रूपमें संगठित हो गया। सम्प्रदायकी भावना तथा अन्य कई कारणोंसे यह अहिंसक समाज अपने आपको ऐसा समझने लगा मानो वह एकदम अलग ही है ! दूसरी ओर सामान्य प्रजामें जो समाजनियामक या लोकसंग्राहिका संस्कृति पहलेसे ही मौजूद थी, वह चालू रही और अपना काम करती चली गई । जब जब किसी ने अहिंसाके सिद्धान्त पर अत्यन्त जोर दिया तब तब इस लोकसंग्रहवाली संस्कृतिने उसे प्रायः अपना तो लिया, किन्तु उसकी प्रात्यन्तिकताके कारण उसका विरोध जारी रखा। इस प्रकार इस संस्कृति
का अनुयायीवर्ग यह समझने और दूसरोंको समझाने लगा मानो . वह प्रारम्भसे ही जुदा था । जैन संस्कृतिमें अहिंसाका जो स्थान है, वही स्थान वैदिक संस्कृतिमें भी है । भेद है तो इतना ही कि वैदिक संस्कृति अहिंसाके सिद्धान्तको व्यक्तिगत रूपसे पूर्ण आध्यात्मिकता का साधन मानकर उसका उपयोग व्यक्तिगत ही प्रतिपादन करती है और समष्ठिकी दृष्टिसे अहिंसा-सिद्धान्तको सीमित कर देती है। इस सिद्धान्तको स्वीकार करके भी समष्टिमें जीवन-व्यवहार तथा
आपत्तिके प्रसंगोंमें हिंसाको अपवाद रूप न मानकर अनिवार्य उत्सर्ग रूप मानती है एवं वर्णन करती है । यही कारण है कि वैदिकसाहित्यमें जहाँ हम उपनिषद् तथा योगदर्शन जैसे अत्यन्त तप और अहिंसाके समर्थक ग्रंथ देखते हैं वहाँ साथ ही साथ 'शाठ्यं कुर्यात् शठं प्रति' की भावनाके समर्थक तथा जीवन व्यवहार किस प्रकार चलाना चाहिए, यह बताने वाले पौराणिक एवं स्मृति-प्रन्योंको भी प्रतिष्ठाप्राप्त देखते हैं । अहिंसा संस्कृतिकी उपासना करनेवाला एक वर्ग जुदा स्थापित होगया और समाजके रूपमें उसका संगठन भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com