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(२२) बिना कोई महापुरुष नहीं बन सकता । महान पुरुषके रूपमें उसकी पूजा भी नहीं हो सकती। फिर भी उसकी पद्धतिमें भेद होता है । एक महान पुरुष किसी भी प्रकारके, किसी भी अन्याय या अधर्म को अपनी सारी शक्ति लगाकर बुद्धिपूर्वक तथा उदारतापूर्वक सहन करके उस अधर्म या अन्यायको करनेवाले व्यक्तिका अन्तःकरण अपने तप द्वारा पलटकर उसमें धर्म एवं न्यायके राज्यकी स्थापना करनेका प्रयत्न करता है । दूसरे महापुरुषको व्यक्तिगत रूपसे धर्मस्थापनकी यह पद्धति यद्यपि इष्ट होती है, तो भी वह लोकसमूहकी दृष्टिसे इस पद्धतिको विशेष फलप्रद न समझकर किसी और ही प. द्धतिको स्वीकार करता है । वह अन्यायी या अधर्मीका अन्तःकरण समता या सहिष्णुताके द्वारा नहीं पलटता । वह तो “ विषकी दवा विष" इस नीतिको स्वीकार कर अथवा 'शठके प्रति शठ' होनेवाली नीतिको स्वीकार कर उस अन्यायी या अधर्मीको मटियामेट करके ही लोकमें धर्म और नीतिकी स्थापना करने पर विश्वास करता है। विचारसरणीका यह भेद हम इस युगमें भी स्पष्ट रूपसे गाँधीजी तथा लोकमान्यकी विचार एवं कार्यशैली में देख सकते हैं।
किसी प्रकारकी गलतफहमी न हो, इस उद्देश्यसे यहाँ दोनों संस्कृतियोंके सम्बन्धमें कुछ विशेष जता देना उचित है । कोई यह न समझ ले कि इन दोनों संस्कृतियोंमें प्रारम्भसे ही मौलिक भेद है और दोनों एक दूसरीसे अलग रहकर ही पली-पुसी हैं। सचाई तो यह है कि एक अखंड आर्य संस्कृतिके दोनों अंश प्राचीन हैं। अहिंसा या आध्यात्मिक संस्कृतिका विकास होते होते एक ऐसा समय आया जब कुछ पुरुषोंने उसे अपने जीवन में पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। इस कारण इन महापुरुषोंके सिद्धान्त और जीवन
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