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(१६) क्षुब्ध न हुए तो उस यक्ष का नागको हाय तोबाइ कराया और रोष शान्त हो गया। उसने । अन्तमें उसके फणों पर नृत्य किया। अपने दुष्कर्मके लिए पश्चात्ताप किया नाग अपने रोषको शान्त करके और अन्तमें भगवान्से क्षमा माँग- तेजस्वी कृष्णकी आज्ञाके अनुसार यहाँ कर उनका भक्त बनगया। से चला गया और समुद्र में जा बसा।
-त्रिषष्ठिशलाकापुषचरित्र, । -भागवत, दशम स्कन्ध, अ०१६ पर्व १०, सर्ग ३, पृ० ३२-३३ श्लोक ३-३०, पृ० ८५८-५९ ।
(२)दीर्घ तपस्वी एकबार विचरते | (२) एकबार किसी धनमें नदीके विचरते मार्ग में ग्वाल-बालकोंके मना | किनारे नन्द वगैरह गोप सो रहे करने पर भी जानबूझ कर एक थे। उस समय एक प्रचण्ड अजगर ऐसे स्थानमें ध्यान धरकर खड़े हो आया जो विद्याधरके पूर्व जन्ममें गए जहाँ पूर्व जन्म के मुनिपद के अपने रूपका अभिमान करनेके. समय क्रोध करके मरजाने के | कारण मुनिका शाप मिलनेसे अ. कारण सर्प रूपमें जन्म लेकर एक भिमानके फलस्वरूप सर्पकी इस दृष्टिविष चण्डकौशिक साँप नीच योनिमें जन्मा था। उसने नन्द रहता था और अपने विषसे सबको का पैर ग्रस लिया। जब दूसरे भस्मसात् कर देता था। इस साँप ग्वाल बालक नन्दका पैर छुड़ाने में ने इन तपस्वीको भी अपने दृष्टिविष असफल हुए सो अन्तमें कृष्णने से भस्म करनेका प्रयत्न किया। इस भाकर अपने पैरसे साँपका स्पर्श प्रयत्नमें निष्फल होने पर उसने किया। स्पर्श होनेके साथ ही सर्प अनेक डंक मारे । जब डंक मारने | अपना रूप छोड़कर मूल विद्याधर में भी उसे सफलता न मिली तो के सुन्दर रूपमें पलट गया।
चण्डकौशिक सर्पका क्रोध कुछ | भक्तवत्सल कृष्णके चरणस्पर्शसे
६ जातकनिदान में बुद्धके विषयमें भी एक ऐसी ही बात लिखी है । उनु. बेलामें बुद्धने एकबार उलुवेलकाश्य नामक पाँच सौ. शिष्यवाले जटिलकी
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