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________________ भगवान् महावीर ३३६ वेदना होती है । इसलिये किसी अंश में आत्मा और शरीर को अभिन्न भी मानना होगा। अर्थात् शरीर और आत्मा भिन्न होने के साथ ही कदाचित अभिन्न भी है। इस स्थिति में जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर भिन्न है वह, और जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर अभिन्न हैं वह, दोनों दृष्टियाँ 'नय' कहलाती हैं। जो अभिप्राय ज्ञान से मोक्ष होना बतलाता है वह ज्ञाननय है और जो अभिप्राय क्रिया से मोक्षसिद्धि बतलाता है, वह क्रिया नय है ये दोनों ही अभिप्राय 'नय' है। ___जो दृष्टि, वस्तु की तात्त्विक स्थिति को अर्थात् वस्तु के मूलस्वरूप को स्पर्श करने वाली है वह 'निश्चय नय' है और जो दृष्टि वस्तु की बाह्य अवस्था की ओर लक्ष्य खींचती है, वह 'व्यवहार नय' है । निश्चय नय बताता है कि आत्मा (संसारीजीव ) शुद्ध-बुद्ध-निरंजन सच्चिदानन्दमय है और व्यवहार नय बताता है कि आत्मा, कर्मबद्ध अवस्था में मोहवान्-अविद्यावान् है। इस तरह के निश्चय और व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं। अभिप्राय बनानेवाले शब्द, वाक्य, शास्त्र या सिद्धान्त सब 'नय' कहलाते हैं-उक्त नय अपनी मर्यादा में माननीय हैं। परन्तु यदि वे एक दूसरे को असत्य ठहराने के लिये तत्पर होते हैं तो अमान्य हो जाते हैं। जैसे-ज्ञान से मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त और क्रिया से मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त-ये दोनों सिद्धान्त स्वपक्ष का मण्डन करते हुए यदि वे एक दूसरे का खण्डन करने लगें तो तिरस्कार के पात्र हैं। इस तरह घट को अनित्य और नित्य बतानेवाले सिद्धान्त, तथा आत्मा और शरीर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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