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________________ ३०९ भगवान् महावीर है । इसके विपरीत विषय और कषाय से विरक्त मनुष्य के द्वारा किसी प्रकार को हिंसा भी हो जाय तो उसकी वह हिंसा परमार्थहिंसा नहीं कहलाती। मान लीजिये कि एक बालक है उसके अन्तर्गत किसी प्रकार की खराब प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति से रुष्ट होकर उसका पिता अथवा गुरु केवल मात्र उसकी कल्याण कामना से प्रेरित होकर कठोर वचनों से उसका ताड़न करते हैं, अथवा उसे शारीरिक दण्ड भी देते हैं, तो इसके लिए कोई भी उस गुरु अथवा पिता को दण्डनीय अथवा निन्दनीय नहीं मान सकता, क्योंकि वह दण्ड देते समय पिता तथा गुरु की वृत्तियों में किसी प्रकार की मलिनता के भाव नथे, उनके हृदय में उस समय भी उज्वल अहिंसक और कल्याण कारक भाव कार्य कर रहे थे। इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य द्वेषभाव के वश में होकर किसी दूसरे व्यक्ति को मारता है अथवा गालियां देता है तो समाज में निन्दनीय और राज्य से दण्डनीय होता है। क्योंकि उस व्यवहार में उसकी भावनाएँ कलुषित रहती हैं-उसका आशय दुष्ट रहता है। यद्यपि उपरोक्त दोनों प्रकार के व्यवहारों का बाह्य स्वरूप एक ही प्रकार का है तथापि भावनाओं के भेद से उनका अन्तर्रुप बिल्कुल एक दूसरे से विपरीत है। इसी प्रकार का भेद द्रव्य और भाव हिंसा के स्वरूप में होता है। वास्तव में यदि देखा जाय तो हिंसा और अहिंसा का रहस्य मनुष्य की मनोभावना पर अवलम्बित है। किसी भो कम्म के शुभाशुभ बन्ध का आधार कर्ता के मनोभाव पर अवलम्बित है। जिस भाव से प्रेरित होकर मनुष्य जो कर्म करता है उसी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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