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________________ भगवान् महावीर ३१० अनुसार उसे उसका फल मिलता है। कर्म की शुभाशुभता उसके स्वरूप पर नहीं, प्रत्युत्त कर्ता की मनोभावनाओं पर निर्भर है। जिस कर्म के करने में कर्त्ता का विचार शुभ है वह शुभ कर्म कहलाता है और जिसके करने में उसके विचार अशुभ हैं वह कर्म अशुभकर्म कहलाता है। एक डाक्टर किसी प्रकार की अस्त्र क्रिया करने के निमित्त बीमार को क्लोरोफार्म सुंघाकर बेहोश करता है, और एक चोर अथवा खूनी उसका धन अथवा प्राण हरने के निमित्त बेहोश करता है। क्रिया की दृष्टि से दोनों कर्म बिल्कुल एक हैं। पर फल की दृष्टि से यदि देखा जाय तो डाक्टर को उस कार्य के बदले में सम्मान मिलता है और गेर तथा खूनी को सजा तथा फांसी मिलती है । कर्म के स्वरूप में कुछ भी अन्तर न होते हुए भो फल के स्वरूप में इतना अन्तर क्यों पड़ता है इसका एक मात्र कारण यही है कि कर्म करने वाले के भाव में बिल्कुल विपरीतता होने से उसके फल में भी विपरीतता दृष्टि गोचर होती है। इसी फल के परिणाम पर से कर्ता के मनोभावों का निष्कर्ष निकाला जाता है, इसी मनोभाव के प्रमाण से कर्म की शुभाशुभता का निश्चय किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप का मूल भूत केवल "मन" है भागवत धर्म के "नारद पंचरत्न" नामक ग्रन्थ में एक स्थल पर कहा है कि: "मानसं प्राणिनामेव सर्वकर्मैक कारणम् । मनोऽरूपं वाक्यं च वावयेन प्रस्फुटं मनः ॥" अर्थात्-प्राणियों के तमाम कर्मों का मूल एक मात्र मन ही है। मन के अनुरूप ही मनुष्य की वचन आदि प्रवृत्तियाँ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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