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________________ भगवान् महावीर ३०८ यद्यपि यह बात सत्य है कि इस प्रकार के महाव्रतियों से भी उक्त क्रियाएं करने में सूक्ष्म जीव हिंसा होती रहती है। पर उनको उच्च मनोदशा के कारण उनको हिंसाजन्य पाप का तनिक भी स्पर्श नहीं होने पाता और इस कारण उनकी आत्मा इस प्रकार के पाप बन्धन से मुक्त ही रहती है। जब तक आत्मा इस स्थूल शरीर के संसर्ग में रहती है, तब तक इस शरीर से इस प्रकार को हिंसा का होते रहना अनिवार्य है। परन्तु इस हिंसा में आत्मा का किसी भी प्रकार का संकल्प व विकल्प न होने से वह उससे अलिप्त ही रहती है। महावृत्तियों के शरीर से होने वाली यह हिंसा द्रव्य अर्थात् स्वरूप हिंसा कहलाती है । भावहिंसा अथवा परमार्थ हिंसा नहीं। क्योंकि उस हिंसा का भावों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता। हिंसाजन्य पाप से वही आत्मा बद्ध होती है जो कि हिंसक भाव से हिंसा करती है । हिंसा का लक्षण बतलाते हुए जैनियों के तत्वार्थ सूत्र नामक ग्रन्थ में लिखा है कि “प्रमत्तयोगा प्राणव्य परोपणं हिंसा" अर्थात् प्रमत्त भाव से जो प्राणियों के प्राणों का नाश किया जाता है, उसी को हिंसा कहते हैं। जो प्राणो विषय अथवा कषाय के वशीभूत होकर किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाता है वही हिंसाजन्य पाप का भागी होता है। इस हिंसा की व्याप्ति केवल शरीर जन्य कष्ट तक ही नहीं पर मन और वचन जन्य कष्ट तक है। जो विषय तथा कषाय के वशीभूत होकर दूसरों के प्रति अनिष्ट चिन्तन या अनिष्ट भाषण करता है. वह भी भाव हिंसा का दोषी माना जाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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