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________________ -भगवान् महावीर २८४ पश्चात् छत्तीस अध्ययन अप्रश्न व्याकरण अर्थात् बिना किसी के पूछे ही कहे, जिस समय वे अन्तिम "प्रधान" नामक अध्ययन कहने लगे, उस समय इन्द्र आसनकम्प से उनका मोक्ष समय जान सर्व परिवार सहित वहाँ आया। उसने प्रभु को नमस्कार कर गद्गद कण्ठ से निवेदन किया: "नाथ ! आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और कैवल्य में हस्तोत्तरा नक्षत्र था । इस समय उसमें "भस्मक' गृह संक्रान्त होने वाला है। आपके जन्म नक्षत्र में संक्रमण हुअा यह ग्रह दो हज़ार वर्ष तक आपके भावा अनुयायियों को बाधा पहुँचायगा । इसलिए जब तक यह ग्रह आपके जन्म-नक्षत्र में संक्रान्त हो तब तक आप ठहरिये। यदि आपके सम्मुख ही यह संक्रान्त हो गया तो आपके प्रभाव से वह निष्फल हो जायगा।" __ प्रभु ने कहा- "हे शक्रेन्द्र ! आयुष्य को बढ़ाने में कोई समर्थ नहीं। इस बात को जानते हुए भी तू क्यों मोह के वश होकर इस प्रकार बोलता है ? आगामी पंचमकाल की प्रवृत्ति से ही तीर्थ को बाधा होने वाली है। उसो भवितव्यता के अनुसार इस ग्रह का उदय हुआ है।" इस प्रकार इन्द्र को समझा कर प्रभु ने स्थूल मनोयोग और वचनयोग को रोका, फिर सूक्ष्म काययोग में स्थिर होकर प्रभु ने स्थूल काययोग को भी रोका, पश्चात् वाणी और मनके सूक्ष्म. योग को भी उन्होंने रोके । इस प्रकार प्रभु ने शुक्लध्यान की. तीसरी स्थिति को प्राप्त की। तदनन्तर सूक्ष्म काययोग को भी रोक कर समुच्छिन्न क्रिया नामक शुक्लध्यान की चौथी स्थिति को धारण को। बाद में पाँच ह्रस्वाक्षरों का उच्चारण कर, शुक्ल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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