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________________ भगवान् महावीर २७६ पश्चात् भद्रा ने राजा से निवेदन किया कि "आज तो यहीं भोजन करने की कृपा कोजिए।" भद्रा के आग्रह से राजा ने उसकी बात स्वीकार की। उसी समय भद्रा ने सब प्रकार के पकवान तैयार करवाये। तदनन्तर राजा ने स्नान के योग्य तैलचूर्णादि द्रव्यों के साथ शुद्धजल से स्नान किया। स्नान करते समय उसकी उँगली में से एक अंगूठी गृह वापिका के जल में गिर गई। राजा इधर उधर उसे ढूढ़ने लगा। यह देख भद्रा ने दासी को आज्ञा दी कि इस वापिका का जल दूसरी ओर से निकाल डाल । दासी के ऐसा करते ही उस वापिका का जल खाली हो गया, और उस वापिका में अनेक दिव्य आभरणों के बीच में वह ज्योति हीन अंगूठी दृष्टि गोचर होने लगी। उन आभरणों को देख आश्चर्यान्वित हो राजा ने पूछा “यह सब क्या है ?" दासी ने कहा-"प्रति दिन शालिभद्र के और उनकी स्त्रियों के निर्माल्य आभूषण निकाल निकाल कर इसमें डाल दिये जाते हैं। ये सब वे ही हैं।" यह सुन कर गजा ने मन ही मन कहा "इस शालिभद्र के पुण्य कर्मों को धन्य है, और उसके साथ साथ मुझे भी धन्य है, जिसके राज्य में ऐसे धनाढ्य लोग वास करते हैं । " तत्पश्चात् श्रेणिक राजा सपरिवार भोजन वगैरह करके राजमहल में गये ।। उसी दिन से शलिभद्र संसार से मुक्त होने का विचार करता रहा। एक दिन उसके एक मित्र ने आकर कहा-"चारों ज्ञान के धारी और सुरासुरों से सेषित धर्मघोष नामक मुनि उद्यान में पधारे हैं।" यह सुन शालिभद्र हर्षान्वित हो उनकी वन्दना करने के लिये गया। उनकी देशना समाप्त हो जाने पर उसने पूछा"भगवन् कौनसा कर्म करने से राजा अपना स्वामी न हो।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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