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________________ २७५ भगवान् महावीर उस मकान में स्वर्ण के स्तम्भ पर इन्द्रनील मणि के तोरण झूल रहे थे, द्वार की भूमि पर मोतियों के साथिये बनाये हुए थे, स्थान स्थान पर दिव्य वस्त्रों के चन्दवे तने हुए थे। इन सबों को अत्यन्त विस्मय पूर्वक देखते देखते राजा ने मकान में प्रवेश किया, और चौथे मंजिल पर चढ़ कर सुशोभितसिंहासन को अलंकृत किया। तत्पश्चात् भद्रा ने सातवों मंजिल पर जाकर शालिभद्र से कहा--"वत्स, श्रेणिक यहाँ पर आये हुए हैं । इसलिये तू उनको देखने के लिये चल ।" शालिभद्र ने कहा-माता ! इस विषय में तुम सब जानती हो इसलिये जो कुछ मूल्य देना हो वह तुम्हीं दे दो। मेरे वहाँ चलने की क्या आवश्यकता है ? भद्रा ने कहा-"वत्स श्रेणिक कोई खरीदने की सामग्री नहीं हैं। वे तो सब लोगों के और तेरे भी मालिक हैं।" यह सुन कर शालिभद्र ने खेद पूर्वक सोचा--"मेरे इस सांसारिक ऐश्वर्या को धिक्कार है जिसमें मेरा भो कोई दूसरा स्वामी है। इसलिए अब तो मैं इस सब भोग को सर्प के फण के समान छोड़ कर श्री वोरप्रभु की शरण लूंगा।" इस प्रकार सोच कर वह बड़ा व्यथित हुआ, पर माता के आग्रह से वह अपनी स्त्रियों सहित श्रेणिक के पास आया और विनय पूर्वक उनसे प्रणाम किया। राजा श्रेणिक ने उसे आलिङ्गन कर अपने पुत्र की तरह गोद में बिठलाया । कुछ समय पश्चात् भद्रा ने कहा"देव ! अब इसे छोड़ दीजिए ! यह मनुष्य होते हुए भी मनुष्य की गंध से बाधा पाता है। इसके पिता देवता हुए हैं। वे इसे और इसकी स्त्रियों को प्रतिदिन दिव्य वेष, वस्त्र तथा अङ्गराग वगैरह देते हैं।" यह सुन राजा ने उस उसी समय विदा कर दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034764
Book TitleBhagwan Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraraj Bhandari
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1925
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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