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कल्पना एक ही साथ में नहीं हुई थीं परन्तु पहले शास्त्रार्थ की कल्पना की गई थी और बाद में खरतर बिरुद की। जिसमें शास्त्रार्थ की कल्पना तो सबसे पहले विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में जिनपतिसूरि ने की थी जैसे कि :
चौलुक्यवंशमुक्तामणिक्यचारुतत्वविचारचातुरीधुरीण विलसदंगरंगनृत्यन्नीत्यंगनारंजितजगज्जनसमाजश्रीदुर्लभराजमहाराजसभायां अनल्पजल्पजलधिसमुच्छलदतुच्छविकल्पकल्लोलमालाकवलितवहलप्रतिवादिकोविदग्रामण्यासंविग्नमुनिनिवहाग्रण्या, सुविहितवसतिपथप्रथनरविणा वादिकेसरिणा श्रीजिनेश्वरसूरिणा, श्रुतयुक्तिभिर्बहुधा, चैत्यवासव्यवस्थापनं प्रति प्रतिक्षिप्तेष्वपि लांपट्याभिनिवेशाभ्यां तन्निर्बंधमजहत्सु यथाच्छंदेषु ।
___ जिनवल्लभसूरिकृत संघ पट्टक, पृष्ठ ४ इस टीका में जिनपतिसूरि ने जिनेश्वरसूरि को वादी विजेता बतलाया है, यह केवल जिनेश्वरसूरि के विशेषण रुप में ही है न कि राजसभा में जाकर किसी चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त करने के लिये है, फिर भी पिछले लोगों ने गाड़ीरी प्रवाह की भांति जिनपतिसूरि की टीका का सहारा लेकर भिन्नभिन्न कल्पना कर डाली हैं पर जब खास जिनपतिसूरि ने ही मिथ्या कल्पना की जो ऊपर के प्रमाणों से साबित होता है तो पिछले लोगों की कल्पना तो स्वयं ही मिथ्या साबित हो जाती है। अब यह सवाल उपस्थित होता है कि जिनपतिसूरि ने यह मिथ्या कल्पना क्यों की होगी? इसके लिये यह कहा जा सकता है कि उस समय जिनपतिसूरि के सामने कई ऐसे भी कारण उपस्थित थे कि उनको इस प्रकार की मिथ्या कल्पना करनी पड़ी, जैसे कि :
१. यह संघपट्टक नामक ग्रन्थ जिनवल्लभसूरि ने चैत्यवासियों के खंडन के विषय में बनाया था जिसकी टीका जिनपतिसूरि लिख रहे थे।
२. चैत्यवासियों को विशेष हलके दिखाने थे।
३. चैत्यवासी जिनवल्लभसूरि को गर्भापहार नामक छठा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररुपणा के कारण संघ बाहर करने में शामिल थे इसका बदला भी लेना था।
४. जिनेश्वरसूरि पाटण गये उस समय चैत्यवासियों ने न तो उनको ठहरने के लिए स्थान दिया था और न ठहरने ही दिया था उसका भी रोष था।
५. जिनदत्तसूरि ने पाटण में स्त्रियों को जिनपूजा निषेध कर उत्सूत्र की प्ररुपणा की जिससे उनको संघ बाहर करने में भी चैत्यवासी शामिल थे यह बात भी जिनपति को खटकती थी।