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६. चैत्यवासियों को यह भी बतलाना था कि पहले भी जिनेश्वरसूरि ने पाटण में चैत्यवासियों को पराजय किया था।
७. विधिमार्ग नामक नये मत पर जो उत्सूत्र का कलंक था उसको भी छिपाना-मिटाना एवं धो डालना था।
इत्यादि कारणों से जिनपतिसूरि ने इस प्रकार की मिथ्या कल्पना की थी।
फिर भी उस समय जिनपतिसूरि ने एक बड़ी भारी भूल तो यह की थी कि जिनेश्वरसूरि के लिए अन्यान्य विशेषणों के साथ खरतर बिरुद का विशेषण लगाना भूल गये । बस यह जिनपतिसूरि की भूल ही आज खरतरों के मार्ग में रोड़ा अटका रही है।
शायद खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि की खर प्रकृति के कारण हुई थी और उस समय इस खरतर शब्द को जिनदत्तसूरि व उनके शिष्य अपमान के रुप में समझते थे और जिनपतिसूरि के समय इसको अधिक समय भी नहीं हुआ था। कारण, जिनदत्तसूरि का देहान्त वि. सं. १२११ में हुआ तब सं. १२२३ में जिनपतिसूरि बने थे। यही कारण है कि जिनपति ने जिनदत्तसूरि को खरतर नहीं लिखा था।
__ आधुनिक खरतरों को इस अपमान सूचक और लोकनिन्दनीय खरतर शब्द पर इतना मोह एवं आग्रह हो आया है कि खरतर शब्द को बिरुद एवं प्राचीन सिद्ध करने के लिये 'षट् स्थानकप्रकरण' की प्रस्तावना में खरतर मतानुयायियों के कई प्रमाण उद्धृत कर बिचारे थली जैसे भद्रिक लोगों को धोखा दिया है। फिर भी उन प्रमाणों से तो उल्टा यह सिद्ध होता है कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक तो किसी की भी यह मान्यता नहीं थी कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में खरतर बिरुद मिला था। हां बाद में यह कल्पना की गई है कि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में खरतर बिरुद मिला। अगर ग्यारहवीं शताब्दी में बिरुद मिले जिसकी ३०० वर्ष तक के साहित्य में गन्ध तक नहीं और ३०० वर्षों के बाद वह गुप्त रहा हुआ बिरुद प्रगट हो यह कभी हो ही नहीं सकता है। खैर, खरतरों के दिये हुए प्रमाणों को मैं यहां उद्धृत कर देता हूँ कि इन प्रमाणों से जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिला सिद्ध होता है या खरतरों की मिथ्या कल्पना साबित होती है, लीजिए
१. पहला प्रमाण अभयदेवसूरि की टीका का है, जिसके लिये मैं प्रथम भाग में श्रीस्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, भगवतीसूत्र और ज्ञाता उपपातिकसूत्र की टीकाओं का प्रमाण दे आया हूँ कि उन्होंने जिनेश्वरसूरि को चन्द्रकुल का होना लिखा है।