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संसाराम्बुधिपारगामिजनताकामेषु कामं सखा ॥३॥ यन्मुखावासवास्तव्या, व्यवस्यति सरस्वती । गन्तुं नान्यत्र स न्याय्यः, श्रीमान्देवप्रभप्रभुः ॥ ४ ॥ मुकुरतुलामकुरयति वस्तुप्रतिबिम्बविशदमतिवृत्रम् । श्रीविबुधप्रभचित्तं न विधते वैपरीत्यं तु ॥ ५ ॥ तत्पदपद्मभ्रमरश्चक्रे पद्मप्रभश्चरितमेतद् । विक्रमतोऽतिक्रान्ते वेदग्रहरवि १२९४ मिति समये ॥ ६ ॥ इति श्रीपद्मप्रभसूरिविरचितश्रीमुनिसुव्रतचरित्रप्रशस्तौ
प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ २९२ इस लेख में भी न तो जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ का जिक्र है और न खरतर बिरुद की गन्ध भी है। आगे चल कर अभयदेवसूरि की सन्तान में एक धर्मघोषसूरि नाम के आचार्य हुए, उन्होंने आबू के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई जिसका शिलालेख क्या उद्घोषना करता है देखिये।
स्वस्तिश्रीनृपविक्रमसंवत् १२९३ वर्षे वैशाख शुक्ल १५ शनावद्येह श्रीअर्बुदाचलमहातीर्थे अणहिल्लपुरवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय त. श्रीचंडप्रसाद महं. सोमान्वये त. आसराज सुतमहं श्रीमल्लदेवमहं श्रीवस्तुपालयोरनुजमहं श्रीतेजपालेन कारित श्रीलूणसीहवसहिकायां श्रीनेमिनाथचैत्ये इत्यादि यावत् श्रे. घेलणसमुद्धरप्रमुखकुटुम्बसमुदायेन श्रीशान्तिनाथबिम्बं कारितं प्रतिष्ठितं च नवाङ्गीवृत्तिकारकश्रीअभयदेवसूरिसंतानीयैः श्रीधर्मघोषसूरिभिः"
प्रवचन परीक्षा, पृष्ठ २९२ इस शिलालेख से इतना तो स्पष्ट सिद्ध हो सकता है कि अभयदेवसूरि तो क्या पर आपकी परम्परा में कोई भी खरतर पैदा नहीं हुआ था, इतना ही क्यों पर अभयदेवसूरि के साथ खरतरों का कुछ सम्बन्ध भी नहीं था। कारण श्रीअभयदेवसूरि तो शुद्ध चन्द्रकुल की परम्परा में है तब खरतर मत की उत्पत्ति कुर्चपुरागच्छीय जिनवल्लभसूरि के पट्टधर जिनदत्तसूरि से हुई थी।
उपरोक्त प्रामाणिक प्रमाणों को पढ़ कर पाठकों को यह सवाल होना स्वाभाविक ही है कि जब प्राचीन किसी ग्रन्थ में जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ एवं खरतर बिरुद का जिक्र तक नहीं है तो फिर यह मान्यता किसके द्वारा और किस समय में हुई कि जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ और राजा दुर्लभ ने जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद दिया?
जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ और खरतर बिरुद की