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पडिलाभिअ मज्झण्हे परिक्खिआ सव्वसत्थेसु ॥ १३ ॥ तत्तो चेइयवासी अमुंडा तत्थागया भणंति इमं । नीसरह नयरमज्झा चेइअबज्झा न इह ठंति ॥ १४ ॥ इअ वुत्तंतं सोउं रण्णो पुरओ पुरोहिओ भणइ । रायावि सयलचेइअवासीणं साहए पुरओ ॥ १५ ॥ जइ कोऽवि गुणड्ढाणं इमाण पुरओ विरूवयं भणिहि। तं निअरज्जाउ फुडं नासेमि सकिमियभसणुव्व ॥ १६ ॥ रण्णो आएसेणं वसहिं लहिउं ठिआ चउम्मासिं । तत्तो सुविहिअमुणिणो विहरंति जहिच्छिअं तत्थ ॥ १७ ॥ "इत्यादि रुद्रपल्लीय संघतिलकसूरिकृत दर्शनसप्ततिका वृतौ"
प्रवचन परीक्षा, पृ. २८३ भावार्थ-वर्धमानसूरि ने जिनेश्वरसूरि को हुक्म दिया कि तुम पाटण जाओ, कारण पाटण में चैत्यवासियों का जोर है कि वे सुविहितों को पाटण में आने नहीं देते हैं, अतः तुम जा कर सुविहितों के लिए पाटण का द्वार खोल दो। बस गुरु आज्ञा स्वीकार कर जिनेश्वरसूरि-बुद्धिसागरसूरि क्रमशः विहार कर पाटण पधारे । वहां प्रत्येक घर में याचना करने पर भी उनको ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला, उस समय उन्होंने गुरु के वचन को याद किया कि वे ठीक ही कहते थे कि पाटण में चैत्यवासियों का जोर है, खैर उस समय पाटण में राजा दुर्लभ का राज था और उनका राजपुरोहित सोमेश्वर ब्राह्मण था। दोनों सूरि चल पुरोहित के वहा गये । परिचय होने पर पुरोहित ने कहा कि आप इस नगर में विराजें। इस पर सूरिजी ने कहा कि तुम्हारे नगर में ठहरने को स्थान ही नहीं मिलता फिर हम कहाँ ठहरें? इस हालत में पुरोहित ने अपनी चन्द्रशाला खोल दी कि वहाँ जिनेश्वरसूरि ठहर गये। यह बितीकार चैत्यवासियों को मालूम हुआ तो वे (प्र. च. उनके आदमी) वहाँ जा कर कहा कि तुम नगर से चले जाओ, कारण यहां चैत्यवासियों की सम्मति बिना कोई श्वेताम्बर साधु ठहर नहीं सकते हैं। इस पर पुरोहित ने कहा कि मैं राजा के पास जा कर इस बात का निर्णय कर लूँगा। बाद पुरोहित ने राजा के पास जा कर सब हाल कह दिया। उधर से सब चैत्यवासी राजा के पास गये और अपनी सत्ता का इतिहास सुनाया। आखिर राजा के आदेश से वसति प्राप्त कर जिनेश्वरसूरिने पाटण में चातुर्मास किया, उस समय से सुविहित मुनि पाटण में यथा इच्छा विहार करने लगे।
यह लेख खास जिनेश्वरसूरि के अनुयायियों का है। इसमें जिनेश्वरसूरि पाटण