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४. चैत्यवासियों के शासन में बडे बडे राजा महाराजा जैनधर्मोपासक एवं जैनधर्म के अनुरागी थे वैसे बाद में नहीं रहें, क्योंकि वे मतधारी लोग तो केवल घर में फूट डालने में ही अपना गौरव समझते थे।
५. चैत्यवासियों ने अपनी सत्ता के समय जैनधर्म की उन्नति करके जैनधर्म को देदीप्यमान रक्खा था। वैसे बाद में किसी ने नहीं रक्खा। इतना ही क्यों पर बाद में तो उन लोगों ने अनेक प्रकार से उत्सूत्र भाषण कर जैनधर्म को जहाँ तहाँ झाका सा बना दिया था।
६. चैत्यवासियों ने अपने समय में जितने जैनेतरों को जैन बनाया था उनके बाद में किसीने भी उतने नहीं बनाये। इतना ही क्यों पर इस प्रकार नये नये मत निकलने से जैनों का पतन ही हुआ था।
७. चैत्यवासियों के समय जैनसमाज का जितना धनबल, मनबल एवं संख्याबल था वह बाद में नहीं रहा अर्थात् चैत्यवासियों के अस्त के साथ जैनसमाज का सूर्य भी अस्त होता ही गया।
इत्यादि चैत्यवासी युग एक जैनियों का उत्कृष्ट पुन्य वृद्धिरुप उत्कर्ष का युग था। यह तो मैंने मुख्यता की बात कही है, गौणता में कई चैत्यवासी शिथिल भी होंगे और वे अपनी चरम सीमा तक भी पहुँच गये होंगे पर ऐसे व्यक्तियों का दोष सर्व समाज पर नहीं लगाया जाता है फिर भी उत्सूत्र प्ररुपकों की बजाय तो वे हजार दर्जे अच्छे ही थे और इस प्रकार के शिथिलाचारी तो नामधारी सुविहितों में भी कम नहीं थे। उनमें भी समयान्तर पतित एवं परिग्रहधारियों की पुकारें हो रही थीं और कई बार क्रिया-उद्धार करना पड़ा था। इतना ही क्यों पर उनकी मान्यता के खिलाफ भी कई मत पन्थ निकल कर शासन को अधिक से अधिक नुकसान पहुचाया था।
मेरे उपरोक्त लेख से पाठक समझ गये होंगे कि चैत्यवासी समाज कोई साधारण समाज नहीं पर जैनधर्म का स्तम्भ एवं जैनधर्म को जीवित रखने वाला जैनधर्म का शुभचिन्तक समाज था। जिसकी खरतरों ने भरपेट निंदा की है।
__ चैत्यवासियों का संक्षिप्त परिचय के पश्चात् अब मैं खरतरमतोत्पत्ति के लिये कहूँगा कि खरतर मत वाले कहते हैं कि वि. सं. १०८० में जिनेश्वरसूरि ने पाटण के राजा दुर्लभ की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय के उपलक्ष में खरतर बिरुद प्राप्त किया। यह कहाँ तक ठीक है? इसके लिये सबसे
१. प्रमाणों के लिये खरतरमतोत्पत्ति भाग पहला पढ़ना जरुरी है।