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त्रिलोक पूजनीय तीर्थंकरों की मूर्तियों को मांस के टुकड़ों की उपमा दे डाली, फिर भी कुदरत जिनवल्लभ के अनुकूल नहीं थी। उसने वि. सं. ११६४ आश्विन कृष्ण त्रयोदशी के दिन चित्तौड़ के किल्ले में ठहरकर भगवान महावीर के गर्भापहार नामक छठा कल्याणक की उत्सूत्र प्ररुपणा कर डाली, जिससे क्या चैत्यवासी और क्या सुविहित अर्थात् सकल श्रीसंघ ने जिनवल्लभ को संघ बाहर कर दिया।
इतना होने पर भी चैत्यवासियों का प्रभाव कम नहीं हुआ था पर शासन की प्रभावना करने के कारण समाज उनका आदरमान पूजा सत्कार करता ही रहा । इस विषय में अधिक न लिख कर केवल इतना ही कह देना मैं उचित समझता हूं कि जैनधर्म के प्रभाविक पुरुषों के लिये वि. सं. १३३४ राजगच्छीय प्रभाचन्द्रसूरि ने एक प्रभाविक चरित्र नामक ग्रन्थ लिखा है। जिसमें आचार्य वज्रस्वामि से लेकर आचार्य हेमचन्द्रसूरि तक के प्रभाविक आचार्यों का जीवन संकलित किया है। जिसमें अधिकतर चैत्यवासी आचार्यों को ही प्रभाविक समझ कर उनकी ही प्रभाव बतलाया है। जैसे वादीवैताल शान्तिसूरि, महेन्द्रसूरि, द्रोणाचार्य, सूराचार्य, वीराचार्य
और हेमचन्द्रसूरि के जीवन लिखे हैं पर नामधारी सुविहित-सुधारक एवं क्रियाउद्धारकों का प्रभाविक पुरुषों में नाम निशान तक भी नहीं हैं, क्योंकि इन लोगों ने शासन की प्रभावना नहीं की पर शासन में फूट-कुसम्प डालकर एवं नये नये मत निकालकर शासन का संगठनबल तोड़ कर शासन को अधिक से अधिक नुकसान पहुँचाया था। अतः उन्हों की गिनती प्रभावकों में नहीं पर उत्सूत्रप्ररुपकों में ही की गई थी। जरा चैत्यवासियों के साथ उनकी तुलना करके देखिये :
१. चैत्यवासियों के शासन में जैनसमाज का संगठन था वह बाद में नहीं रहा, क्योंकि श्रीसंघ का संगठन तोड़ने का तो इन नूतन मतधारियों का खास ध्येय ही था।
२. चैत्यवासियों के समय समाज की देवगुरुधर्म पर दृढ़ श्रद्धा थी वह बाद में नहीं रही थी, क्योंकि नूतनमतधारियों ने भद्रिको के हृदय में भेदभाव डाल दिया था।
३. चैत्यवासियों के समय समाज तन, धन, इज्जत, मान, प्रतिष्ठा से समृद्धिशाली था वैसा बाद में नहीं रहा, क्योंकि मतधारियों ने समाज में फूट डाल कर उनका पुन्य हटा दिया था। १. असंविग्न समुदायेन, संविग्न समुदायः संघ बहिष्कृतः।
"प्रवचन परिक्षा, पृष्ठ २४२"