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५. कई कहते हैं कि राजा ने बिरुद तो नहीं दिया पर केवल इतना ही कहा कि ये खरा-बस इसको ही खरतर बिरुद समझ लिया गया है। ७. क्या जिनेश्वरसूरि के पूर्व भी खरतर थे ?
१. कई खरतर कहते हैं कि जिनेश्वरसूरि खरतर थे। २. कई खरतर कहते हैं कि उद्योतनसूरि भी खरतर थे। ३. कई खरतर कहते हैं कि वर्धमानसूरि भी खरतर थे। ४. कई खरतर कहते हैं कि सौधर्मस्वामि भी खरतर थे। ५. कई खरतर कहते हैं कि गौतमस्वामि भी खरतर थे।
उपरोक्त खरतर मतानुयायियों के पृथक् पृथक् लेखों एवं मान्यताओं से इतना तो सहज ही में जाना जा सकता है कि खरतरों ने केवल खरतर बिरुद की एक कपोल कल्पित कल्पना करके बिचारे भद्रिक जीवों को बड़ा भारी धोखा दिया है। वास्तव में खरतरों को अभी तक यह पता नहीं है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति क्यों, कब और किस व्यक्ति द्वारा हुई ? यदि शास्त्रार्थ की विजय में खरतर शब्द की उत्पत्ति हुई होती तो इस महत्त्वपूर्ण बिरुद की इस प्रकार विडम्बना नहीं होती जो आज खरतर लोग कर रहे हैं। जिन आचार्यों के लिए आज खरतरे खरतर होने को कह रहे हैं पर न तो वे थे खरतर और न उन्होंने खरतर शब्द कानों से भी सुना था। इतना ही क्यों पर विद्वानों का तो यहां तक खयाल है कि पूर्वाचार्यों पर खरत्व का कलंक लगाने वाले ही सच्चे खरतर हैं। अस्तु।
खरतर मत की उत्पत्ति के लिए खरतरों की भिन्न भिन्न मान्यता का परिचय करवाने के बाद अब में खर-तरमतोत्पत्ति के विषय में यह बतला देना चाहता हूँ कि खरतर मत की उत्पत्ति किसी राजा के दिये हुए बिरुद से हुई या किसी आचार्य की खर (कठोर) प्रकृति के कारण हुई है?
इस विषय के निर्णय के लिए मैंने 'खरतरमतोत्पत्ति' नामक भाग पहला में
१. श्रीजिनेश्वरसूरि पाटणिराज श्रीदुर्लभनी सभाई कुर्चपुरागच्छीय चैत्यवासी साथी कांस्यपात्रनी
चर्चा कीधी त्यों श्रीदशवैकालिकनी चर्चा गाथा कही ने चेत्यवासी ने जीत्या तिबारइं राज श्रीदुर्लभ कहइ "ऐ आचार्य शास्त्रानुसारे खळं बोल्या" ते थकी वि. सं. १०८० वर्षे श्रीजिनेश्वरसूरि खरतर बिरुद लीधो।
___ "सिद्धान्त मग्नसागर, पृष्ठ ९४" २. नं. १, २, ३, ४, ५ के प्रमाण इसी पुस्तक में अन्यत्र दिये जायेंगे । अतः पाठक वहां
से पढ़ लें।