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पुष्कल प्रमाणों द्वारा यह साबित कर दिया है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि की खर प्रकृति की वजह से हुई है। यही कारण है कि उस समय जिनदत्तसूरि खरतर शब्द से सख्त नाराज रहते थे। कारण, यह खरतर शब्द उनके लिये अपमान सूचक था।
प्रथम भाग लिखने के बाद भी मैं इस विषय का अन्वेषण करता ही रहा, अतः मुझे और भी कई प्रमाण प्राप्त हुए हैं, जिनको मैं आज आप सज्जनों की सेवा में उपस्थित कर देना समुचित समझता हूँ।
खरतरमतोत्पत्ति में खरतर लोग विशेष कारण चैत्यवासियों का ही बतलाते हैं। अतः पहले मैं थोड़ा सा चैत्यवासियों का परिचय करवा देता हूँ।
चैत्यवास-चैत्य यानि मन्दिर और उसमें ठहरना (वास) अर्थात् मंदिर में ठहरना उसको चैत्यवास कहा जाता है। चैत्य की व्यवस्था दो प्रकार से समझी जाती है, एक तो चैत्य के सब कम्पाउन्ड को चैत्य कहते हैं और दूसरे चैत्य में मूलगम्भारा हैं कि जिसमें भगवान की मूर्ति स्थापित की जाय उसको भी चैत्य कहा जाता है।
चैत्य के कम्पाउन्ड में ऐसे भी मकान होते हैं कि जिसमें साधु और गृहस्थ ठहर सकते हैं जैसे भोयणी, पानसर, जघड़िया, जैतारन, कापरड़ा और फलौदी के मन्दिरों में आज भी ऐसे मकान है कि जहाँ साधु ठहर सकते हैं।
चैत्य के मूलगम्भारा के अलावा रंगमण्डपादि स्थान हैं, उसमें भी साधु धर्मोपदेश दे सकते हैं, अतः एवं मकान की विशालता हो तो साधु ठहर भी सकते हैं, कारण कि जब तीर्थंकरदेव की विद्यमानता के समय भी साधु उनके समीप रहते थे और आहार पानी भी वहीं करते थे। अतः चैत्य में रहने से नुकसान नहीं पर कई प्रकार के फायदे ही थे क्योंकि साधु के चैत्य में ठहरने से श्रावकों को देवगुरु की भक्ति उपासना या व्याख्यान श्रवणादि में अच्छा सुभीता रहता था। जब वन उपवन एवं जंगलों में चैत्य थे उस समय भी साधु चैत्यों में ही ठहरते थे, बाद साधुओं में वसति की शुरुआत हुई तब भी वे चैत्य में ठहरते थे' तथा श्रावकों १ उस समय सब धर्म वाले प्रायः धर्मस्थानों (चैत्य) में ठहर कर धर्मोपदेश दिया करते
थे जैसे बौद्ध भिक्षु बौधचैत्यों में ठहरकर धर्मोपदेश देते थे, बाद जब से दिगम्बर मत चला तो उसके साधु भी चैत्यों में धर्मोपदेश दिया करते थे। इतना ही क्यों पर दिगम्बरों के चैत्यों में तो आज भी व्याख्यान एवं स्वाध्याय होता है इसी प्रकार श्वेताम्बर साधु भी अपने चैत्यों में व्याख्यान देते हो तो असम्भव नहीं है। श्वेताम्बर समाज में