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यह आचार्य जिनदत्तसूरि के छठे पट्टधर हुए हैं।
पूर्वोक्त शिलालेखों से पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि जिनकुशलसूरि के पूर्व किन्हीं आचार्यों के नाम के साथ खरतर शब्द का प्रयोग नहीं हुआ पर जिनकुशलसूरि के कई शिलालेखों में खरतर शब्द नहीं है और कई लेखों में खरतरगच्छ का प्रयोग हुआ है, इससे यह स्पष्ट पाया जाता है कि खरतर शब्द गच्छ के रुप में जिनकुशलसूरि के समय अर्थात् विक्रम की चौदहवीं शताब्दी ही में परिणत हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि खरतर शब्द न तो राजाओं का दिया हुआ बिरुद है और न कोई गच्छ का नाम है। यदि वि. सं. १०८० में जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में राजा दुर्लभ ने खरतर बिरुद दिया होता तो करीब ३०० वर्षों तक यह महत्त्वपूर्ण बिरुद गुप्त नहीं रहता। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छाचार्यों की यह मान्यता थी कि खरतर गच्छ के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही थे। और यही उन्होंने शिलालेखों में लिखा है। यहां एक शिलालेख इस बारे में नीचे उद्धृत करते हैं।
"संवत् १५३६ वर्षे फागुणसुदि ५ भौमवासरे श्री उपकेशवंशे छाजहड़गोत्रे मंत्रि फलधराऽन्वये मं. जूठल पुत्र मकालू भा. कांदे पु. नयणा भा. नामल दे ततोपुत्र मं. सीहा भार्यया चोपड़ा सा. सवा पुत्र स. जिनदत्त भा. लखाई पुत्र्या श्राविका अपुरव नाम्न्या पुत्र समधर समरा संदू संही तया स्वपुण्यार्थ श्रीआदिदेव प्रथम पुत्ररत्न प्रथम चक्रवर्ति श्री भरतेश्वरस्य कायोत्सर्गस्थितस्य प्रतिमाकारिता प्रतिष्ठिता खरतरगच्छमण्डन श्रीजिनदत्तसूरि श्रीजिनकुशलसूरि संतानीय श्रीजिनचन्द्रसूरि पं. जिनश्वरसूरि शाखायां श्रीजिनशेखरसूरि पट्टे श्रीजिनधर्मसूरि पट्टाऽलंकार श्रीपूज्य श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः"
बा. पू. सं., लेखांक २४०० इस लेख से पाया जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छ के आदि पुरुष जिनेश्वरसूरि नहीं पर जिनदत्तसूरि ही माने जाते थे। खरतरों के पास इससे प्राचीन कोई भी प्रमाण नहीं है कि वह जनता के सामने पेश कर सके। आधुनिक खरतर अनुयायी प्रतिक्रमण के अन्त में दादाजी के काउस्सग्ग करते हैं। उसमें भी जिनेश्वरसूरि का नहीं पर जिनदत्तसूरि का ही करते हैं और कहते हैं कि खरतरगच्छ शृंगारहार जिनदत्तसूरि आराधनार्थ... इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि खरतरगच्छ के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही हैं।
खरतर शब्द को प्राचीन साबित करने वाला एक प्रमाण खरतरों को ऐसा