________________
२६
wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww
उपलब्ध हुआ है कि जिस पर वे लोग विश्वास कर कहते हैं कि बाबू पूर्णचन्दजी नाहर के संग्रह किये हुए शिलालेख खण्ड तीसरे में वि. सं. ११४७ का एक शिलालेख है।
"संवत् ११४७ वर्षे श्रीऋषभबिंबं श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनशेखरसूरिभिः करापितं ॥"
___ बा. पू. सं., खं. तीसरा, लेखांक २१२४ पूर्वोक्त शिलालेख जैसलमेर के किल्ले के अन्दर स्थित चिन्तामणि पार्श्वनाथ के मन्दिर में है। जो बिनपबासन भूमि पर बीस विहरमान तीर्थंकरों की मूर्तियाँ स्थापित है उनमें एक मूर्ति में यह लेख बताया जाता है। परन्तु जब फलोदी के वैद्य मुहता पांचूलालजी के संघ में मुझे जैसलमेर जाने का सौभाग्य मिला तो मैं अपने दिल की शङ्का निवारणार्थ प्राचीन लेख संग्रह खण्ड तीसरा जिसमें निर्दिष्ट लेख मुद्रित था वह साथ में लेकर मन्दिर में गया और खोज करनी शुरु की। परन्तु अत्यधिक अन्वेषण करने पर भी ११४७ के संवत् वाली उक्त मूर्ति उपलब्ध नहीं हुई। अनन्तर शिलालेख के नम्बरों से मिलान किया, पर न तो वह मूर्ति ही मिली और न उस मूर्ति का कोई रिक्त स्थान मिला (शायद वहाँ से मूर्ति उठा ली गई हो) पुनः इस खोज के लिये मैंने यतिवर्य प्रतापरत्नजी नाडोल वाले और मेघराजजी मुनौत फलोदीवालों को बुलाके जाँच कराई, अनन्तर अन्य स्थानों की मूर्तियों की तलाश की पर प्रस्तुत मूर्ति कहीं पर भी नहीं मिली। शिलालेख संग्रह नम्बर २१२० से क्रमशः २१३७ तक की सारी मूतिए सोलहवीं शताब्दी की हैं। फिर उनके बीच २१२४ नम्बर की मूर्ति वि. सं. ११४७ की कैसे मानी जाय? क्योंकि न तो इस सम्वत् की मूर्ति ही वहाँ है और न उसके लिए कोई स्थान खाली है। जैसलमेर में प्रायः ६००० मूर्तिएँ बताते हैं, पर किसी शिलालेख में बारहवीं सदी में खरतर गच्छ का नाम नहीं है। अतः ११४७ वाला लेख कल्पित हैं फिर भी लेख छपाने वालों ने इतना ध्यान भी नहीं रक्खा कि शिलालेख के समय के साथ जिनशेखरसूरि का अस्तित्व था या नहीं?
अस्तु ! अब हमारे जिनशेखरसूरि का समय देखते हैं तो वह वि. सं. ११४७ तक तो सूरि-आचार्य ही नहीं हुए थे, क्योंकि जिनवल्लभसूरि का देहान्त वि. सं. ११६७ में हुआ, तत्पश्चात् उनके पट्टधर सं. ११६९ जिनदत्त और १२०५ में जिनशेखर आचार्य हुए तो फिर ११४७ सम्वत् में जिनशेखरसूरि का अस्तित्व कैसे सिद्ध हो सकता है?
खरतर शब्द खास कर जिनदत्तसूरि की प्रकृति के कारण ही पैदा हुआ था