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उल्लेख जरुर करते, किन्तु इतिहास से इस टोपीवाली घटना को असत्य जानकर ही आपने उसका कहीं नामवर्णन भी नहीं किया है, क्योंकि विद्वान् तो सदा मिथ्या लेखों से डरते रहते हैं। उन्हें भय रहता है कि झूठी बात के लिये पूछने पर प्रमाण क्या देंगे? पर जिन्होंने अपनी अक्ल का दिवाला निकाल दिया है वे फिर झूठ सत्य की परवाह क्यों करते?
जिस प्रकार जिनचन्द्रसूरि के साथ मुल्ला के टोपी की घटना कल्पित है वैसे ही बकरी के भेद बतलाने की घटना भी भ्रममात्र है, क्योंकि न तो यह घटना घटी थी और न इसके लिए कोई प्रमाण ही है। यदि खरतरों के पास इन दोनों घटनाओं के लिये कुछ भी प्रमाण हों तो अब भी प्रगट करें। वरना इस बीसवीं शताब्दी में ऐसे कल्पित कलेवरों की कौड़ी भी कीमत नहीं है बल्कि हांसी का ही कारण है।
दीवार नंबर १५ ___ कई लोग अपनी अनभिज्ञता एवं आन्तरिक द्वेषभावना के कारण यह भी कह उठते हैं कि सं. २२२ में न तो ओसियां में ओसवाल हुए हैं और न रत्नप्रभसूरिने ओसवाल बनाये हैं। प्रत्युत ओसवाल तो खरतरगच्छाचार्योंने ही बनाये हैं। इसलिए तमाम ओसवालों को खरतरगच्छाचार्यों का ही उपकार समझना एवं मानना चाहिए।
समीक्षा-अव्वल तो यह बात कहां लिखी है? किसने कही है? और आपने कहां सुनी है? क्योंकि आज पर्यन्त किसी विद्वान्ने यह न तो किसी ग्रंथ में लिखी है और न कहा भी है कि २२२ संवत् में रत्नप्रभसूरिने ओसियां में
ओसवाल बनाये थे। यदि किन्हीं भाट भोजकोंने कह भी दिया हो तो आपने बिना प्रमाण उस पर कैसे विश्वास कर लिया? यदि किसी द्वेष के वशीभूत हो आपने इस कल्पित बात को सच मान ली है तो उन भाट भोजकों के वचनों से अधिक कीमत आप के कहने की भी नहीं है। खरतरों ! लम्बी चौड़ी हांक के बिचारे भद्रिक लोगों को भ्रम में डालने के पहले थोडा इतिहास का अभ्यास करिये-देखिये !!
(१) आचार्य रत्नप्रभसूरि प्रभु पार्श्वनाथ के छटे पट्टधर भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद पहली शताब्दी में हुए है।
(२) जिसे आप ओसियां नगरी कह रहे हैं पूर्व जमाना में इसका नाम उपकेशपुर था।
(३) जिन्हें आप ओसवाल कह रहे हैं इन का प्राचीन काल में उपकेशवंश
नाम था।