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भानुचंद्र आदि बादशाह अकबर को उपदेश देते रहे। बादशाहने जैन धर्म को ठीक समझ कर आचार्य विजयहीरसूरि के उपदेश से एक वर्ष में छ मास तक अहिंसा का तथा शत्रुञ्जय वगैरह तीर्थों के बारे में फरमान लिख दिया। इस से तपागच्छ की बहुत प्रभावना हुई । उस समय बीकानेर का कर्मचन्द्र बछावत बादशाह की सेवा में था। उसने सोचा कि यह यश केवल तपागच्छवालोंने ही कमा लिया तो
खरतरगच्छाचार्यों को बुला कर कुछ हिस्सा इन से खरतरगच्छवालों को क्यों न दिखाया जाय? तब वि. सं. १६४८ में खरतराचार्य जिनचन्द्रसूरि को बुला कर बादशाह की भेंट करवाई। पर इसमें खरतरगच्छवालों को अभिमान कर के फूल जाने की कोई बात नहीं है, क्योंकि वि. सं. १६३९ से १६४८ तक तपागच्छवालोंने ही बादशाह का मन जैनधर्म की ओर आकर्षित किया। बाद में जिनचन्द्रसूरि और बादशाह की भेट हुई तथा जो मान सन्मान मिला था वह तपागच्छीय आचार्यों की कृपा का ही फल था। इस से खरतरों को तो उल्टा तपागच्छवालों का उपकार समझना चाहिए।
बादशाह अकबर स्वयं मुसलमान था और मुल्ला था। बादशाह का गुरु ? क्या जिनचन्द्रसूरि या दूसरों की यह शक्ति थी कि वे सभा में उनका अपमान कर सकें? बादशाह अकबर को ३०० वर्ष हुए हैं और उस समय का इतिहास ज्यों का त्यों आज उपस्थित है। क्या खरतर लोग उसमें इस बात की गंध भी बता सकते हैं कि अमुक समय व जगह यह किस्सा बना था। जब यह बात ही कल्पित है तो ऐसे दृश्य का चित्र बनाकर भद्रिक जीवों को भ्रम में डाल अपने आचार्य की झूठी प्रशंसा करने की क्या कीमत हो सकती है? हां, जरा देरके लिए दुनिया उसे देख भले ही ले, पर समझेंगी क्या यही न कि चित्र बनाने और बनवानेवाले दोनों अक्ल के दुश्मन हैं।
हाल ही में श्रीमान् अगरचन्दजी नाहटा बीकानेरवालोंने जिनचन्द्रसूरि नामक पुस्तक लिखी है, उसमें जिनचन्द्रसूरि और बादशाह अकबर का सब हाल दिया है, पर जिनचंद्रसूरिने मुल्ला की टोपी उडाई इस बात का जिक्र तक भी नहीं किया है। नाहटाजी इतिहास के अच्छे विद्वान् हैं। यदि ऐसी टोपीवाली बात सत्य होती तो वे अपनी पुस्तक में लिखने से कभी नहीं चुकते । यद्यपि नाहटाजी उपकेशगच्छीय श्रावक हैं फिर भी आप को खरतरगच्छ का अत्यधिक मोह है। इससे आपने अपनी "जिनचन्द्रसूरि" नामक पुस्तक में बादशाह अकबर और जिनचंद्रसूरि का एक कल्पित चित्र दिया है उसमें आकाश के अन्दर टोपी का चिन्ह जरुर है, परन्तु यह शायद नाहटाजीने खरतरों को खुश रखने की गर्ज से दिया है, अन्यथा वे इसका