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समझ में नहीं आता है कि खरतर लोग इस प्रकार की गप्प हांक कर अपने आचार्यों का महत्व बढ़ाने की कोशिश क्यों करते हैं ? और जैसे बादशाह के चमत्कार की कल्पना की है इसी प्रकार मस्तक से उछली हुई मणि की भी कल्पना कर डाली है। यह सब कल्पना के कलेवर की भांति निस्सार बातें हैं क्योंकि दिल्ही पर बादशाह का राज वि. सं. १२४९ के बाद में हुआ तब जिनचन्द्रसूरि का देहान्त सं. १२२३ में ही हो चुका था। अतः खरतरों का लिखना मिथ्या प्रलापरुप ही समझना चाहिये।
दूसरा जिनचन्द्रसूरि विक्रम की सत्तरहवीं शताब्दी में हुआ और उनके लिये खरतर लोग कहते हैं कि जिनचन्द्रसूरि ने बादशाह अकबर को प्रतिबोध दिया था। इस विषय में किसी अगरचंद भंवरलाल नाहटा बीकानेर वालों ने 'युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि' नाम का एक थोथा पोथा भी प्रकाशित करवाया। पर उस थोथा पोथा में जिनचन्द्रसूरि की मिथ्या प्रशंसा और जगत्गुरु भट्टारक आचार्य विजयहीरसूरीश्वरजी महाराज की निंदा के अलावा कुछ भी तथ्य नहीं है।
खरतर एक कृतघ्नी मत है क्योंकि जिस विजयहीरसूरि के प्रबल प्रताप से जिनचन्द्रसूरि को बादशाह अकबर के दर्शन का सौभाग्य मिला था उन्हीं विजयहीरसूरि की निंदा से इन कृतघ्नियों ने कागज काले किये हैं।
खरतरों की पट्टावली से पाया जाता है कि जिनचन्द्र परिग्रहधारी यति था। फिर भी वह था महत्वाकांक्षी । कर्मचन्द्र वच्छावत के दबाव से जिनचन्द्र ने नाम मात्र परिग्रह का त्याग तो किया पर किसी त्यागी साधुओं के पास उसने फिर से दीक्षा नहीं ली। अतः जिनचन्द्र को अव्रति यति ही कहा जा सकता है। क्योंकि केवल परिग्रह का त्याग करने से ही साधु नहीं कहलाता है।
क्लेश प्रिय खरतरों में अन्य गच्छियों के साथ अधिक से अधिक क्लेश करता है वह प्रभाविक कहलाता है। जिनचंद्रसूरि ने करीब चारसौ वर्ष की दबी हुई खरतर अग्नि को फिर से प्रज्वलित कर समाज में क्लेश का दावानल भभका दिया था। क्योंकि ऐसे लोगों की पूंछ क्लेश कदाग्रह से ही होती है। फिर भी उस समय जिनचन्द्र एवं खरतरों के दांत खट्टे करने वाले महोपाध्यायजी श्रीमान् धर्मसागरजी विद्यमान थे कि इतना क्लेश करने पर भी जिनचन्द्र की कुछ भी दाल न गली, जहां जहां शास्त्रार्थ हुआ वहां वहां जिनचन्द्र को पूरी तरह से पराजित होना पड़ा, जिसके प्रमाण में उपाध्यायजी ने एक "कुपक्षकौशिकसहस्र किरण" अपरनाम 'प्रवचन परीक्षा' नामक ग्रन्थ निर्माण किया था और वह मूल ग्रन्थ टीका के साथ अभी प्रकाशित भी हो चुका है। जिसका अध्ययन करने से पाठक स्वयं