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सकता है। क्योंकि ढूंढ़ियों ने स्त्री और पुरुष दोनों को जिनपूजा का निषेध किया जो शासन के दो ही अंग थे। तब जिनदत्तसूरि ने एक स्त्री जाति को जिनपूजा का निषेध कर शासन का एक अंग काट डाला। फिर भी ढूंढियों की बजाय खरतरों ने शासन को अधिक नुकसान पहुंचाया। कारण, ढूंढिये तो शासन से बिलकुल अलग हो गये कि उन पर किसी का विश्वास नहीं रहा पर खरतर तो अर्द्ध दग्ध होने से कई भद्रिक उनके माया जाल में फंस गये एवं खरतरों ने शासन को धोखा देकर विश्वासघात किया है, आज करीब ८०० वर्षों से क्लेश कदाग्रह फूट कुसम्प चला आ रहा है यह केवल खरतरों का ही कारण है। यों तो जैनशासन में ८४ ही क्यों पर ३०० गच्छ हुए है। पर किसी गच्छ का इतना झगड़ा नहीं है जितना कि खरतरों का है। अतः खरतर शासन के कट्टर दुश्मन और हानि पहुंचाने वाले ही हैं।
कई खरतर कहते हैं कि दादाजी जिनदत्तसूरि बड़े ही प्रभाविक हुये हैं। तब ही तो उनका चलाया खरतरगच्छ आज पर्यन्त चला आ रहा है। और हजारों आदमी इस गच्छ को आदर की दृष्टि से देखते हैं।
मत चलाना और उसको हजारों आदमियों का मानना कोई प्रभाविकता का कारण नहीं है। खरतरों का मानने वाले तो दुनिया में करीब २००० घर होंगे पर ढूंढ़िया तेरहपन्थियों ने अपना मत चलाया जिसके मानने वालों की संख्या लाखों तक पहुंच गई। क्या खरतर भाई ढूंढ़िया तेरहपन्थी मत चलाने वालों को भी प्रभाविक मानते हैं? क्योंकि खरतरों की भांति उन्होंने भी नया मत निकाला और उनको भी लाखों मनुष्य आदर की दृष्टि से देखते हैं। जैसा ढूंढ़िया तेरहपन्थियों का हाल है वैसा खरतरों का हाल है।
आचार्य हेमचन्द्रसूरि और जिनदत्तसूरि समकालीन हुये हैं। जितने विशेषण जिनदत्तसूरि के साथ खरतरों ने लगाये हैं उतने हेमचन्द्रसूरि के साथ किसीने भी नहीं लगाये। पर जैनधर्म के प्रभाविक आचार्यों ने हेमचन्द्रसूरि को माना है वैसे जिनदत्तसूरि को नहीं माना है। जैसे प्रभावक चरित्र नामक ग्रन्थ वि. सं. १३३४ में एक राजगच्छीय प्रभाचन्द्रसूरि ने लिखा है। वे एक मध्यस्थ आचार्य थे। उस ग्रन्थ में आचार्य अभयदेवसूरि एवं हेमचंद्रसूरि के जीवन को बड़ी खूबी के साथ स्थान दिया है। फिर जिनदत्तसूरि के जीवन को उस ग्रन्थ में स्थान नहीं मिला इसका कारण क्या हो सकता है ? क्योंकि खरतर जिनदत्तसूरि को हेमचन्द्रसूरि से भी प्रभावक मानते हैं और ये दोनों हुये भी साथ साथ हैं। पर इसका कारण यही हो सकता है कि हेमचन्द्रसूरि ने तो राजा कुमारपाल को प्रतिबोध देकर तथा अनेक