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जनोपयोगी ग्रन्थों की रचना करके जैन संसार पर महान उपकार किया और जैनधर्म की खूब प्रभावना की। तब जिनदत्तसूरि ने स्त्री समाज को जिनपूजा निषेध कर शासन के एक अंग को काट डाला और इस कारण जैनसमाज में क्लेश कदाग्रह फूट कुसम्प के बीज बोये जिनके फल आज पर्यन्त जैन जनता चख रही है। अतः ऐसे उत्सूत्र प्ररुपकों को प्रभावक पुरुषों के बीच स्थान मिलना मुश्किल ही नहीं पर सर्वथा असम्भव ही है।
कई खरतर भक्तों ने जिनदत्तसूरि की महिमा बढ़ाने के लिये उसके जीवन के साथ बिलकुल झूठी झूठी घटनायें जोड़ दी हैं कि जिससे थली जैसे प्रान्त के भद्रिक लोग उन घटनाओं को सुन कर जिनदत्तसूरि को चमत्कारी एवं प्रभाविक मान उनके उपासक बन जाये पर सभ्य समाज तो उन मिथ्या चमत्कारों से घृणा करके हजार हाथ दूर रहने ही में अपना कल्याण समझता है। हां इस बीसवीं शताब्दी में खरतरों की बहुत सी पोलें खुल गई हैं और दूसरों की तो क्या पर खरतरों की भी श्रद्धा उन मिथ्या चमत्कारों से हट गई है। पर अभी ऐसे अन्ध विश्वासों का सर्वथा अभाव भी नहीं हुआ है। अतः उनके बन्द नेत्र खोल देने के लिये मैं कतिपय उदाहरण यहां दर्ज कर देता हूं। पाठक ध्यान लगा कर पढ़ें।
१. कई खरतर कहते एवं लिखते हैं कि जिनदत्तसूरि ने योगिनियों से अपनी गच्छ वृद्धि के लिये सात वरदान लिये थे जिसमें यह भी वरदान है कि कुंवारी कन्या खरतर गच्छ में दीक्षा लेगी वह ऋतुमती न होगी। पर आज खरतर मत में बहुत सी कुंवारी कन्याओं ने दीक्षा ली है और वे ऋतु समय ऋतुमती भी होती हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं। १. या तो योगिनियों का वचन असत्य २. या कुंवारी दीक्षा लेने के बाद उनमें कुंवारपना (ब्रह्मचर्य व्रत) नहीं रहा हो। इनके अलावा शायद यह गप्प जिनदत्तसूरि की महिमा बढ़ाने के लिये कल्पना मात्र हो । अतः इन भक्तों ने दादाजी की महिमा बढ़ाई न कह कर दादाजी की खिल्ली उड़ाई ही कहना चाहिये। क्योंकि इसका नतीजा यही निकलता है कि या तो योगिनियां या दादाजी झूठे या साध्वीयां व्यभिचारिणी हैं।
२. पूर्वोक्त सात वरदानों में एक यह भी वरदान है कि खरतर गच्छ का श्रावक सिन्ध देश में जायेगा वह अवश्य धनाढ्य होगा। इस वरदान के कारण कई धनपिपासु खरतर गृहस्थ सिन्ध में गये। वहां उन्होंने कहीं भी धन नहीं पाया। अतः खाली पल्ले वापिस आकर जलते कलेजे से दादाजी को दवाई दी, अस्तु १. अखंड शीलपालका साध्वी ऋतुमता न भविष्यति । २. खरतर श्राद्धः सिन्धुदेशं गतः सन् धनवान् भवी।