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होती है। यदि उद्योतनसरि ने वर्धमान को सरि पद दिया माना जाय तो आब के मन्दिरों की प्रतिष्ठा वर्धमानसूरि के हाथों से होना कदापि सिद्ध नहीं होता है और आबू के मन्दिरों की प्रतिष्ठा वर्धमानसूरि के हाथों से करवाई मानी जाय तो उद्योतनसूरि की मौजूदगी में वर्धमानसूरि पद प्रतिष्ठ होना असम्भव है।
वास्तव में उद्योतनसूरि ने मुनि सर्वदेव को सूरि पद दिया था, यह बात तपागच्छ पट्टावली तथा आंचलगच्छीय पट्टावली और मेरुतुंगसूरि ने अपने रचे हुए ग्रन्थों में लिखी है।
वर्धमानसूरि को उद्योतनसूरि के पट्टधर भी मानना और आबू के मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी उनके हाथ से करवाई समझना इनके लिये एक मार्ग यह हो सकता है कि उद्योतनसूरि ने अपने पट्टधर सर्वदेवसूरि को स्थापन कर स्वर्गवास कर दिया हो और बाद में वर्धमानसूरि चैत्यवास छोड़कर उद्योतनसूरि के पट्टधर बन गये हों जैसे अभयदेवसूरि के स्वर्गवास के बाद ३२ वर्ष से जिनवल्लभसूरि अभयदेवसूरि के पट्टधर बन गये थे, इसी भांति वर्धमानसूरि ने भी किया हो तो दोनों बातें रह सकती हैं। यह तपागच्छ और खरतरों के उद्योतनसूरि ही अलग अलग हों क्योंकि इन दोनों की पट्टावलियों में उद्योतनसूरि की गुरु परम्परा पृथक पृथक हैं जैसे कि :तपागच्छ पट्टावली | खरतर-पट्टा. नं. १ । खरतर पट्टा. नं. २ यशोभद्रसूरि जिनभद्रसूरि
यशोभद्रसूरि प्रद्योम्नसूरि हरिभद्रसूरि विमलचंद्रसूरि मानदेवसूरि देवचंद्रसूरि
देवसूरि विमलचन्द्रसूरि नेमिचंद्रसूरि
नेमिचंद्रसूरि उद्योतनसूरि उद्योतनसूरि
उद्योतनसूरि सर्वदेवसूरि । वर्धमानसूरि
वर्धमानसूरि (प.स., पृष्ठ ५३) | (ऐ. जै. का पृष्ठ २१९) | (बा. पू.सं., पृष्ठ १५)
खरतर-खरतर पट्टावलियों में नामों का इतना अन्तर है कि एक दूसरी पट्टावली से नाम नहीं मिलते हैं तब दूसरे गच्छों की पट्टावली से नाम मिलने की तो आशा ही क्यों रक्खें ? अतः कल्पित मत की पट्टावलियाँ भी कल्पित ही होती हैं। फिर भी खरतर अपनी उपरोक्त पट्टावलियाँ को किसी प्रमाणिक प्रमाणों द्वारा प्रमाणित कर दें तो उद्योतनसूरि का झगड़ा सहज ही में मिट जाय । अन्यथा खरतरों