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________________ आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' स्थान देता हूँ, ज्यादा नहीं। तब साधुको कहना चाहिए कि जो भोजन दे वो पानी आदि भी देता है । इस प्रकार हमको वसति देनेवाले तुमने स्थंडिल-मात्रादि भूमि भी दी है । शय्यातर पूछते हैं , तुम कितना समय यहाँ रहोगे? साधु को कहना चाहिए कि, जब तक अनुकूल होगा तब तक रहेंगे । शय्यातर पूछते हैं कि, 'तुम कितने साधु यहाँ रहोगे ?' साधु ने कहा कि सागर की उपमा से ।' सागर में किसी दिन ज्यादा पानी हो, किसी दिन मर्यादित पानी होता है, ऐसे गच्छ में किसी समय ज्यादा साधु होते हैं तो किसी दिन परिमित साधु होते हैं । शय्यातर ने पूछा कि, 'तुम कब आओगे?' साधु ने कहा कि, हमारे दूसरे साधु दूसरे स्थान पर क्षेत्र देखने के लिए गए हैं, इसलिए सोचकर यदि यह क्षेत्र उचित लगेगा तो आएंगे, यदि शय्यातर ऐसा कहे कि, तुम्हें इतने ही क्षेत्र में और इतनी ही गिनती में रहना पड़ेगा । तो उस क्षेत्र में साधु को मासकल्प आदि करना न कल्पे । यदि दूसरी जगह वसति न मिले तो वहीं निवास करे । जिस वसति में खुद रहे हो वो वसति यदि परिमित हो और वहाँ दूसरे साधु आए तो उन्हें वंदन आदि करना, खड़े होना, सन्मान करना, भिक्षा लाना, देना, आदि विधि सँभालना, फिर उस साधु को कहना कि, 'हमको यह वसति परिमित मिली है इसलिए दूसरे ज्यादा नहीं रह सकते, इसलिए दूसरी वसति की जाँच करनी चाहिए। सूत्र- २४७-२८० क्षेत्र की जाँच करके वापस आते हुए दूसरे रास्ते पर होकर आना, क्योंकि शायद जो क्षेत्र देखा था, उससे अच्छा क्षेत्र हो तो पता चले । वापस आने से भी सूत्रपोरिसी अर्थपोरिसी न करे । क्योंकि जितने देर से आए उतना समय आचार्य को ठहरना पड़े, मासकल्प से ज्यादा वास हो उतना नित्यवास माना जाता है । आचार्य भगवंत के पास आकर, इरियावही करके, अतिचार आदि की आलोचना करके आचार्य को क्षेत्र के गण आदि बताए । आचार्य रात को सभी साधुओं को इकट्ठा करके क्षेत्र की बातें करे । सबका अभिप्राय लेकर खुद को योग्य लगे उस क्षेत्र की ओर विहार करे, आचार्य का मत प्रमाण गिना जाता है, उस क्षेत्र में से विहार करने से विधिवत् शय्यातर को बताए। अविधि से कहने में कईं दोष रहे हैं । शय्यातर को बताए बिना विहार कर ले तो शय्यातर को होता है कि, यह भिक्षु को लोकधर्म मालूम नहीं है । जो प्रत्यक्ष ऐसे लोकधर्म को नहीं जानते उन्हें अदृष्ट का कैसे पता चल सके ? इसलिए शायद जैन धर्म को छोड़ दे । दूसरी बार किसी साधु को वसति न दे । किसी श्रावक आदि आचार्य को मिलने आए हो या दीक्षा लेने के लिए आए हो तो शय्यातर को पूछे कि, 'आचार्य कहाँ है ?' रोषायमान शय्यातर कहे कि, हमे क्या पता? ऐसा उत्तर सुनकर श्रावक आदि को होता है कि लोकव्यवहार का भी ज्ञान नहीं है तो फिर परलोक का क्या ज्ञान होगा ? इसलिए दर्शन का त्याग करे, इत्यादि दोष न हो इसके लिए विधिवत् शय्यातर को पूछकर विहार करे । पास के गाँव में जाना हो तो सूत्र पोरिसी, अर्थ पोरिसी करके विहार करे । काफी दूर जाना हो तो पात्र पडिलेहणा किए बिना नीकले । बाल, वृद्ध आदि खुद उठा सके उतनी उपधि उठाए, बाकी उपधि जवान आदि समर्थ हो तो उठाए । किसी निद्रालु जैसे ही जल्द न नीकले तो उन्हें मिलने के लिए जाते हुए त करके जाए, जल्द जाते समय आवाझ न करे, आवाझ करे तो लोग सो रहे हों वो जाग उठे, इसलिए अधिकरण आदि दोष लगे, सब साथ में नीकले, जिससे किसी साधु को रास्ता पूछने के लिए आवाझ न करना पड़े, अच्छी तिथि, मुहूर्त, अच्छा सगुन देखकर विहार करे। मलीन देहवाला फटे हुए कपड़ेवाला शरीर पर तेल लगाया हुआ, कुबड़ा, वामन-कुत्ता, आँठ-नौ महिने के गर्भवाली स्त्री, ज्यादा उम्रवाली कन्या, लकड़ी का भारा, बाबा, वैरागी, लम्बी दाढ़ी मूंछवाला, लुहार, पांडुरोगवाला, बौद्ध भिक्षु, दिगम्बर आदि अपसगुन है जब कि नंदी, वाजिंत्र, पानी से भरा घड़ा, शंख, पड़ह का शब्द, झारी, छत्र, चामर, झंडा, पताका, श्रमण, साधु, जितेन्द्रिय, पुष्प इत्यादि शुभ सगुन हैं । सूत्र - २८१-२९० संकेत - प्रदोष, (संध्या) के समय आचार्य सभी साधुओं को इकट्ठा करके कहे कि, कुछ समय पर नीकलेंगे । कुछ-कुछ जगह पर विश्राम करेंगे, कुछ जगह पर ठहरेंगे, कुछ गाँव में भिक्षा के लिए जाएंगे । आदि मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 18
SR No.034709
Book TitleAgam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 1, & agam_oghniryukti
File Size2 MB
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