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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' किसी निद्रालु/शठ प्रायः के साथ आने के लिए तैयार न हो तो उसके लिए भी कुछ जगह पर इकटे होने का संकेत दे । वो अकेला सो जाए या गोकुल आदि में घूमता हो तो प्रमाद दोष से उसकी उपधि हर जाए । क्षेत्र प्रत्युप्रेक्षक कुछ गच्छ के आगे, कुछ मध्य में और कुछ पीछे चले । रास्ते में स्थंडिल, मात्रा आदि की जगह बताए । क्योंकि किसी को अति शंका हई हो तो टाल सके । रास्ते में गाँव आए वहाँ भिक्षा मिल सके ऐसा हो और जिस गाँव में ठहरना है, वो गाँव छोटा हो, तो तरुण साधु को गाँव में भिक्षा लेने के लिए भेजे और उनकी उपधि आदि दूसरे साधु ले ले । किसी साधु असहिष्णु हो तो गोचरी के लिए वहाँ रखकर जाए और साथ में मार्ग के परिचित साधु को रखे । जिससे जिस गाँव में जाना है वहाँ सुख से आ सके । जिस गाँव में ठहरना है उस गाँव में किसी कारण से बदलाव हो गया हो यानि उस गाँव में रहा जाए ऐसा न हो तो, पीछे रहे साधु इकट्ठे हो सके उसके लिए दो साधु को वहाँ रोक ले । यदि दो साधु न हो तो एक साधु को रोके या किसी लुहार आदि को कहे कि, हम उस गाँव में जा रहे हैं। पीछे हमारे साध आते हैं, उनको कहना कि तुम्हारे साध इस रास्ते पर गए हैं। वो गाँव यदि शुन्य हो तो जिस रास्ते से जाना हो उस रास्ते पर लम्बी रेखा खींचनी चाहिए। जिससे पीछे आनेवाले साधु को रास्ते का पता चले । गाँव में प्रवेश करे उसमें यदि वसति का व्याघात हआ हो, तो दूसरी वसति की जाँच करके उतरे। रास्ते में भिक्षा के लिए रोके हुए साधु भिक्षा लेकर आए तब पता चले, कि 'गच्छ तो आगे के गाँव में गए हैं। तो यदि वो गाँव दो जोजन से ज्यादा हो, तो एक साधु को गच्छ के पास भेजे, वो साधु गच्छ में रहे साधु में भूखे हो वो साधु भिक्षा लेकर ठहरे हैं वहाँ वापस आ जाए । फिर गोचरी करके उस गाँव में जाए । गाँव में रहे साधुने यदि गोचरी कर ली हो तो कहलाए कि, 'हमने खाया है', तुम वहाँ गोचरी करके आना। सूत्र - २९१-३१८
वसति ग्रहण - गाँव में प्रवेश करके उपाश्रय के पास आए, फिर वृषभ साधु वसति में प्रवेश करके काजो ले, परदा बाँधे तब तक दूसरे साधु उपाश्रय के बाहर खड़े रहें। काजा लिए जाने के बाद सभी साधु वसति में प्रवेश करे । यदि उस समय गोचरी का हो तो एक संघाटक काजा ले और दूसरे गोचरी के लिए जाए । पूर्वे तय की हुई वसति का किसी कारण से व्याघात हुआ हो, तो दूसरी वसति की जाँच करके, सभी साधु उस वसति में जाए । प्रश्न गाँव के बाहर गोचरी करके फिर वसति में प्रवेश करना । क्योंकि भूखे और प्यासे होने से ईर्यापथिकी ढूँढ़ न सके, इसलिए संयम विराधना होती है । पाँव में काँटा आदि लगा हो तो उपधि के बोझ से देख न सके, इससे आत्म विराधना हो, इसलिए बाहर विकाले आहार करके प्रवेश करना उचित नहीं है ? ... ना । बाहर खाने में आत्म-विराधना, संयम विराधना के दोष हैं । क्योंकि यदि बाहर गोचरी करे तो वहाँ गृहस्थ हो । उन्हें दूर जाने के लिए कहे और यदि वो दूर जाए उसमें संयम विराधना हो । उसमें शायद वो गृहस्थ वहाँ से हटे नहीं और उल्टा सामने बोले कि, तुम इस जगह के मालिक नहीं हो । शायद आपस में कलह होता है । साधु मंडलीबद्ध गोचरी करते हैं, इसलिए गृहस्थ ताज्जुब से आए, इसलिए संक्षोभ हो । आहार गले में न उतरे । कलह हो । इसलिए गृहस्थ कोपायमान हो और फिर से वसति न दे । दूसरे गाँव में जाकर खाए तो उपधि और भिक्षा के बोझ से और क्षुधा के कारण से, ईर्यापथिकी देख न सके । इससे पाँव में काँटा लगे तो आत्म विराधना । आहारादि नीचे गिर जाए तो उसको छह काय की विराधना । यानि संयम विराधना । विकाले प्रवेश करे तो वसति न देखी हई हो वो दोष लगे । गाँव में प्रवेश करते ही कुत्ता आदि काट ले, चोर हो तो मारे या उपधि उठा ले जाए । रखेवाल शायद पकड़े या मारे । बैल हो तो शायद शींग मारे । रास्ता भटक जाए । वेश्या आदि निंद्य के घर हो उसका पता न चले । वसति में काँटा आदि पड़े हों तो लग जाए । सर्प आदि के बील हो तो शायद साँप आदि इंस ले । इससे आत्म विराधना हो । न देखी हुई प्रमार्जन न की हुई वसति में संथारो करने से चींटी आदि जीवजन्तु की विराधना हो, इससे संयम विराधना हो । न देखी हुई वसति में कालग्रहण लिए बिना स्वाध्याय करे तो दोष और यदि स्वाध्याय न करे तो सूत्र अर्थ की हानि हो । स्थंडिल मात्रु न देखी हुई जगह पर परठवने से संयम विराधना और आत्मविराधना हो, यदि स्थंडिल आदि रोके तो - स्थंडिल रोकने से मौत हो, मात्रु रोकने से आँख का तेज कम हो, डकार रोकने से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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