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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' दूसरे को टकरावे हो, तो कोई मछली इस दुःख से दर्द पाकर सुखी होने के लिए अगाध जल में से गहरे जल में जाए तो वो मछली कितनी खुश रह सकती है ? यानि मछवारे की जाल या बगले की चोंच आदि में फँसकर वो मछली जल्द नष्ट होती है ऐसे साधु यदि गच्छ में से ऊंबकर नीकल जाए तो उल्टा साधुता से भ्रष्ट होने में उसे देर नहीं लगती, इसीलिए गच्छ में प्रतिकूलता होने के बावजूद भी गच्छ में ही रहना चाहिए । जो साधु चक्र, स्तूप, प्रतिमा, कल्याणकादिभूमि, संखड़ी आदि के लिए विहार करे । खुद जहाँ रहते हो वो जगह अच्छी न हो या खुद को अच्छा न लगता हो । यानि तो दूसरे अच्छे स्थान हो वहाँ विहार करे | अच्छी अच्छी उपधि, वस्त्र, पात्र और गोचरी अच्छी न मिलती हो तो दूसरी जगह विहार करे । इसे निष्कारण विहार कहते हैं, लेकिन यदि गीतार्थ साधु सूत्र अर्थ उभय से ज्यादा सम्यग्दर्शन आदि स्थिर करने के लिए विहार करे तो उसे कारणिक विहार कहते हैं। सूत्र - १९१-१९९
शास्त्रकारने एक गीतार्थ और दूसरा गीतार्थ निश्रित यानि खुद गीतार्थ न हो लेकिन गीतार्थ की निश्रा में रहा हो, ऐसे दो विहार की अनुज्ञा - अनुमति दी है । अगीतार्थ अकेला विचरण करे या जिसमें सभी साधु अगीतार्थ विचरण कर रहे हों तो वो संयम विराधना, आत्म विराधना और ज्ञानदर्शन चारित्र की विराधना करनेवाला होता है
और श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का लोप करनेवाला होता है और उससे संसार बढ़ाता है । इस प्रकार विहार करनेवाले - चार प्रकार के हैं । जयमाना, विहरमाना, अवधानमाना, आहिंड़का,
जयमाना, तीन प्रकार से ज्ञान में बेचैन दर्शन में बेचैन, चारित्र में बेचैन । विहरमाना-दो प्रकार से । गच्छमता, गच्छनिर्गता, प्रत्येक बद्ध-जाति स्मरण या किसी दूसरे निमित्त से बोध पाकर साध बने हए - जिन कल्प अपनाए हुए प्रतिमाधारी - साधु की बारह प्रतिमा का वहन करनेवाले । अवधावमान-दो प्रकार से, लिंग से विहार से । लिंग से - साधु का वेश रखके भी गृहस्थ बने हुए । विहार - पार्श्वस्थ कुशील आदि होनेवाले । आहिंड़का - दो प्रकार से उपदेश-आहिंड़का, अनुपदेश आहिंडका । उपदेश आहिंड़का आज्ञा के अनुसार विहार करनेवाले । अनुपदेश आहिंड़का-बिना कारण विचरण करनेवाले । स्तूप आदि देखने के लिए विहार करनेवाले । सूत्र - २००-२१९
मासकल्प या बारिस की मौसम पूर्ण होने पर, दूसरे क्षेत्र में जाना हो तब क्षेत्र प्रत्युप्रेक्षक आ जाने के बाद आचार्य सभी साधुओं को इकट्ठा करे और पूछे कि, 'किसे कौन-सा क्षेत्र ठीक लगा ?' सबका मत लेकर सूत्र अर्थ की हानि न हो उस प्रकार से विहार करे। चारों दिशा शुद्ध हो (अनकल हो) तो चार दिशा में, तीन दिः तीन दिशा में, दो दिशा शुद्ध हो तो दो दिशा में, सात-सात, पाँच-पाँच या तीन-तीन साधु को विहार करवाए । जिस क्षेत्र में जाना हो वो क्षेत्र कैसा है वो पहले से पता कर लेना चाहिए । फिर विहार करना चाहिए । यदि जाँच किए बिना उस क्षेत्र में जाए तो शायद उतरने के लिए वसति न मिले । भिक्षा दुर्लभ हो । बाल, ग्लान आदि के उचित भिक्षा न मिले । माँस, रुधिर आदि से असज्झाय रहती हो । इसलिए स्वाध्याय न हो सके । इसलिए पहले से जाँच करने के बाद यतना से विहार करना चाहिए।
क्षेत्र की जाँच करने के लिए सबकी सलाह लेना और गण को पूछकर जिसे भेजना हो उसे भेज दे । खास अभिग्रहवाले साधु हो तो उन्हें भेजे । वो न हो तो दूसरे समर्थ हो तो उसे भेजे । लेकिन बाल, वृद्ध, अगीतार्थ, योगी, वैयावच्च करनेवाले तपस्वी आदि को न भेजे, क्योंकि - उन्हें भेजने में दोष है।
बालसाधु को- भेजे तो म्लेच्छ आदि साधु को उठा ले जाए । या तो खेलकूद का मिजाज होने से रास्ते में खेलने लगे । कर्तव्य अकर्तव्य न समझ सके । या जिस क्षेत्र में जाए, वहाँ बालसाधु होने से लोग अनुकंपा से ज्यादा दे । इसलिए बालसाधु को न भेजे । वृद्ध साधु को भेजे तो बुढ़ापे के कारण से शरीर काँप रहा हो तो लम्बे अरसे के बाद उचित स्थान पर पहुँचे । और यदि इन्द्रिय शिथिल हो गई हो तो रास्ता अच्छी प्रकार से न देख सके, स्थंडिल भूमि की भी अच्छी प्रकार से जाँच न कर सके । वृद्ध हो इसलिए लोग अनुकंपा से ज्यादा दे इसलिए वृद्ध साधु को भी न भेजे । अगीतार्थ को भेजे तो वो मासकल्प, वर्षाकल्प आदि विधि का पता न हो तो, वसति की
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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