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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' | शायद बाह्य प्रेक्षणा में अशुद्ध हो तो भी वसति में जाना और गुरु की परीक्षा लेना क्योंकि शायद वो साधु गुरु की मनाई होने के बावजूद ऐसा आचरण कर रहे हो । बाह्य परीक्षा में शुद्ध हो, फिर भी अभ्यंतर परीक्षा लेना । अभ्यंतर द्रव्य, परीक्षा, भिक्षा आदि के लिए बाहर गए हो, वहाँ किसी गृहस्थ आदि निमित्त आदि पूछे तो वो न बताए, अशुद्ध आहार आदि का निषेध कर रहा हो और शुद्ध आहार ग्रहण कर रहा हो, वेश्या-दासी आदि के स्थान के पास रहता न हो, तो ऐसे साधु को शुद्ध मानना चाहिए । उपाश्रय के भीतर शेषकाल में पीठफलक आदि का उपयोग न कर रहे हो, मात्रु आदि गृहस्थ से अलग हो, श्लेष्म आदि भस्मवाली कूड़ में डाले तो उसे शुद्ध मानना । अभ्यंतर भाव परीक्षा - कामोत्तेजक गीत गा रहे हो या कथा कर रहे हो, पासा कोड़ी आदि खेल रहे हो तो उसे अशुद्ध समझना । गुण से युक्त समनोज्ञ साधु के साथ रहना, ऐसे न हो तो अमनोज्ञ साधु के साथ रहना । उपाश्रय में प्रवेश करके उपकरण एक ओर रखकर वंदन आदि करके स्थापना आदि कुल पूछकर फिर गोचरी के लिए जाए। सूत्र-१७२-१७८
वसतिद्वार - संविज्ञ समोज्ञ साधु के साथ वसति ढूँढ़ना, ऐसी न हो तो नित्यवासी, अमनोज्ञ पार्श्वस्थ आदि वहाँ रहे हो तो, उनके साथ न बँसते हए, उन्हें बताकर अलग स्थान में यानि स्त्री रहित श्रावक के घर में रहना । ऐसा न हो तो स्त्री रहित भद्रक के घर में रहना । ऐसा न हो तो स्त्री रहित भद्रक के घर में अलग कमरा या डेली में रहना, ऐसा न हो तो स्त्री सहित भद्रक के घर में बीच में पर्दा आदि करके रहना । ऐसा भी न हो तो बील आदि रहित, मजबूत और दरवज्जेवाले शून्य गृह में रहना और अपनी देखभाल रखने के लिए नित्यवासी आदि को बताए। शून्यगह भी न हो तो उपर्युक्त कालचारी नित्यवासी पार्श्वस्थादि रहे हो वहाँ उन्होंने इस्तमाल न किया हो ऐसे प्रदेश में रहे, उपधि आदि अपने पास रखकर प्रतिक्रमण आदि क्रिया करके कायोत्सर्ग आदि करे । यदि जगने की शक्ति न हो तो यतनापूर्वक सोए, ऐसी जगह भी न हो तो यथाछंद आदि की बसति का भी इस्तमाल करे । उसकी विशेष विधि यह है - वो झूठी प्ररूपणा कर रहा हो, उसका व्याघात करे, यदि व्याघात करने में समर्थ न हो तो ध्यान करे, ध्यान न कर सके तो ऊंचाई से पढना शुरू कर दे, पढ न सके तो अपने कान में ऊंगली डालना, इसलिए सामनेवाले को लगे कि यह नहीं सुन सकेगा इसलिए उसकी धर्मकथा बंध करे, नासकोरा आदि की ज्यादा आवाझ करके सोने का दिखावा करे, जिससे वो त्रस्त हो जाए, ऐसा न हो तो, अपने उपकरण पास रखकर यतनापूर्वक सो जाए। सूत्र- १७९-१८४
स्थानस्थित (कारण से) विहार करते हुए वर्षाकाल आ जाए, जिस रास्ते पर जाना हो उस गाँव में अशिव आदि का उपद्रव हो, अकाल को, नदी में बाढ़ आई हो । दूसरे रास्ते से जाने के लिए समर्थ हो तो उस रास्ते से घूमकर जाए । वरना जब तक उपद्रव आदि की शान्ति न हो तब तक उस बीच के गाँव में रूके । रास्ते में पता चले कि जिस काम के लिए जिस आचार्य के पास जाने के लिए नीकला था, वो आचार्य उस गाँव में से विहार कर चूके हैं । तो जब तक वो आचार्य किस गाँव में गए हैं, वो मालूम न हो तब तक उस गाँव में ठहरे और पता चले तब उस
ओर विहार करे । वो आचार्य महाराज का कालधर्म होने का सुनाई दे, तो जब तक पूरे समाचार न मिले तब तक बीच के गाँव में ठहर जाए । खुद ही बीमार हो जाए तो ठहर जाए । गाँव में ठहरने से पहले गाँव में वैद्य को और गाँव के स्वामी (मुखीया) को बात करके रूके । क्योंकि वैद्य को बात की हो तो बीमारी में दवाई अच्छी प्रकार से दे
और मुखीया को बात की हो तो रक्षा करे । गाँव में बड़ा पुरुष हो उसके स्थान में रहे या योग्य वसति में ठहरे । वहाँ रहते दंडक आदि की अपने आचार्य की प्रकार स्थापना करे, इस कारण कारणिक हो तो प्रमाद छोड़कर विचरता है सूत्र-१८५-१९०
स्थानस्थित (बिना कारण)- गच्छ में सारणा, वारणा, चोयणा, पडिचोयणा होते हैं, उससे दुःखी होकर अकेला जाए, तो वो अपनी आत्मा को नुकसान करता है, जैसे सागर में छोटी-बड़ी कईं मछलियाँ होती हैं वो एक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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