________________
आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' 'अभी तक भिक्षा का समय नहीं हुआ ।' तो वहाँ किसका इन्तजार करे और उद्गम आदि दोष की जाँच करे, गृहस्थ हो तो आगे जाए और देवकुल आदि - शून्यगृह आदि में जहाँ गृहस्थ आदि न हो, वहाँ जाकर गोचरी करे । शून्यगृह में प्रवेश करने से पहले लकड़ी थपथपाए, खाँसी खाए, जिससे शायद कोई भीतरी हो तो बाहर नीकल जाए, फिर भीतर जाकर इरियावही करके, गोचरी करे । सूत्र-१५५-१६१
गोचरी करते हुए शायद भीतर से किसी गृहस्थ आ जाए तो बिना डरे यह तुम्हारा पिंड स्वाहा, यह यम पिंड़ यह वरुण पिंड़ आदि बोलने लगे पिशाच ने ग्रहण किया हो ऐसा मुँह बनाए । इसलिए वो आदमी भयभीत होकर वहाँ से नीकल जाए । शायद कोई पुरुष बाहर से, छिद्र में से या खिड़की में से या ऊपर से देख ले और वो आदमी चिल्लाकर दूसरे लोगों को बोले कि - यहाँ आओ, यहाँ आओ, यह साधु पात्र में भोजन करते हैं । ऐसा हो तो साधु को क्या करना चाहिए ? गृहस्थ दूर हो तो थोड़ा खाए और ज्यादा वहाँ रहे खड्डे में डाल दे - छिपा दे या धूल से ढंक दे और वो लोग आने से पहले पात्र साफ कर दे और स्वाध्याय करने में लग जाए । उन लोगों के पास आकर पूछे कि - तुमने भिक्षा कहाँ की यदि वो लोगने गाँव में गोचरी करते देख लिया हो तो कहे कि, 'श्रावक आदि के घर खाकर यहाँ आए हो, उन लोगों ने भिक्षा के लिए घूमते न देखा हो तो पूछे कि, क्या भिक्षा का समय हुआ है ? यदि वो पात्र देखने के लिए जबरदस्ती करे तो पात्र दिखाए । पात्र साफ दिखने से, वो आए हुए लोग कहनेवाले से नफरत करे । इससे शासन का ऊड्डाह नहीं होता । गाँव की नजदीक में जगह न मिले और शायद दूर जाना पड़े, तो वहाँ जाने के बाद इरियावही करके थोड़ी देर स्वाध्याय करके शान्त होने के बाद भिक्षा खाए । किसी भद्रक वैद्य साध को भिक्षा ले जाते हए देखे और उसे लगे कि इस साध को धात का वैषम्य हआ है, यदि इस आहार को तुरन्त खाएंगे तो यकीनन मौत होगी। इसलिए वैद्य सोचता है कि, मैं इस साधु के पीछे जाऊं, यदि तुरन्त आहार करे तो रोक लूँ । लेकिन जब वैद्य के देखने में आता है कि - यह साधु जल्दी खाने नहीं लगते लेकिन क्रिया करते हैं। क्रिया करने में शरीर की धातु सम हो जाती है । यह सब देखकर वैद्य साधु के पास आकर पूछता है कि-क्या तुमने वैदिकशास्त्र पढ़ा है ? तुमने आकर भिक्षा नहीं खाई ? साधु ने कहा कि- हमारे सर्वज्ञ भगवान का यह उपदेश है कि, 'स्वाध्याय करने के बाद खाना । फिर साधु वैद्य को धर्मोपदेश दे । इससे वो वैद्य शायद दीक्षा ग्रहण करे या तो श्रावक हो । ऐसे विधि सँभालने में कईं फायदे हैं । तीन गाऊ जाने के बावजूद गोचरी करने का स्थान न मिले तो और नजदीकी गाँव में आहार मिले ऐसा हो और समय लगता हो तो साथ में लाया गया आहार परठवे, लेकिन यदि आहार लाकर खाने में सूर्य अस्त हो जाए तो वहीं धर्मास्तिकायादि की कल्पना करके यतना पूर्वक आहार खा
ले।
सूत्र-१६२-१७१
साधु - दो प्रकार के- देखे हुए और न देखे हुए, उसमें भी परिचित गुण से पहचाने हुए और गुण न पहचाने हुए । पहचाने में सुने हुए गुणवाले और न सुने हुए गुणवाले । उसमें प्रशस्त गुणवाले और अप्रशस्त गुणवाले । उसमें भी सांभोगिक और अन्य सांभोगिक । साधु को देखा हो तो फिर वो अज्ञात गुणवाले कैसे हो सके ? समवसरण-महोत्सव आदि जगह में देखा हो, लेकिन पहचान न होने से गुण पहचान में न आए हों, कुछ देखे हुए न हों, लेकिन गुण सुने हुए हों । जो साधु शुद्ध आचारवाले हो, उसके साथ निवास करना । (अशुद्ध) साधु की परीक्षा दो प्रकार से - (१) बाह्य (२) अभ्यंतर | दोनों में द्रव्य से और भाव से, बाह्य-द्रव्य से परीक्षा जंघा आदि साबुन आदि से साफ करे । उपानह रखे, रंगबीरंगी लकड़ी रखे, साध्वी की प्रकार सिर पर कपड़ा ओढ़ ले, एक दूसरे साधु के साथ हाथ पकड़कर चले, आड़ा-टेढ़ा देखते-देखते चले, दिशा आदि के उपयोग बिना स्थंडिल पर बैठे । (पवन के सामने, गाँव के सामने, सूर्य के सामने न बैठे लेकिन पीठ करके बैठे ।) काफी पानी से प्रक्षालन करे आदि । बाहा-भाव से परीक्षा-स्त्री-भोजन, देश और चोरकथा करते जा रहे हो, रास्ते में गीत, मैथुन सम्बन्धी बातें या फेर फुदरड़ी करते चले । मानव तिर्यंच आ रहे हों तो वहाँ मात्रु स्थंडिल के लिए जाए, ऊंगली से कुछ नकल करे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
Page 14