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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' सूत्र-७८
यदि काफी हवा चल रही हो तो खदान में या पेड़ के नीचे खड़े रहे । यदि वहाँ खड़े रहने में भय हो तो छिद्र रहित कँबल ओढ़ ले और किनार लटके नहीं ऐसे जाना । सूत्र- ७९
वनस्पति तीन प्रकार से है । सचित्त, अचित्त, मिश्र । वो भी प्रत्येक और सामान्य दो भेद से हो । वो हर एक स्थिर और अस्थिर भेद से होते हैं । उसके भी चार-चार भेद हैं । दबी हुई-भयरहित, मसली हुई-भययुक्त, न मसली हुई-भयरहित, न मसली हुई-भययुक्त उसमें सचित्त, प्रत्येक, स्थिर, आक्रान्त और भय रहित वनस्पति में जाना । यदि ऐसा न हो तो स्थिति के अनुसार व्यवहार करना। सूत्र-८०
बेइन्द्रिय जीव सचित्त, अचित्त, मिश्र तीन भेद से बताए हैं । उसके स्थिर संघयण दो भेद उन हरएक के आक्रान्त, अनाक्रान्त, सप्रत्यपाय (भययुक्त) और अप्रत्यपाय (भय रहित) ऐसे चार भेद बताए हैं । उसी प्रकार तेइन्द्रिय, चऊरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के लिए समझना, उसमें अचित्त त्रसवाली भूमि में जाना । सूत्र-८१-८३
पृथ्वीकाय और अपकाय वाले दो रास्ते में से पृथ्वीकाय में जाना, पृथ्वी और वनस्पतियुक्त मार्ग हो तो पृथ्वीकाय में जाना, पृथ्वी-त्रस-वनस्पति हो तो त्रसरहित पृथ्वी मार्ग में जाना, अप्काय, वनस्पतिकाय वाला मार्ग हो तो वन के रास्ते में जाना तेऊ-वाऊ के अलावा भी अन्य स्थिति है उसके लिए संक्षेप में कहा जाए तो कम से कम विराधनावाले मार्ग में जाना चाहिए। सूत्र-८४-८५
सभी जगह संयम रक्षा करना । संयम से भी आत्मा की रक्षा करना । क्योंकि जिन्दा रहेगा तो पुनः तप आदि से विशुद्धि कर लेना । संयम के निमित्त से देह धारण किया है। यदि देह ही न हो तो संयम का पालन किस प्रकार होगा? संयम वृद्धि के लिए शरीर का पालन इष्ट है । सूत्र-८६-९८
लोग भी दलदल, शिकारी, जानवर, कुत्ते, पथरीला कँटवाला और काफी पानी हो ऐसे रास्ते का त्याग करते हैं । तो फिर साधु में और गृहस्थ में क्या फर्क ? गृहस्थ जयणा या अजयणा को नहीं जानते । सचित्त, मिश्र - प्रत्येक या अनन्त को नहीं जानते । जीव वध न करना ऐसे पच्चक्खाण नहीं, जब साधु को यह प्रतिज्ञा और पता चलता है वो विशेषता है लोग मौत का भय और परीश्रम भाव से वो पथ छोड़ देते हैं । जब साधु दया के परिणाम से मोक्ष के आशयवाले होकर उपयोग से पथ को ग्रहण करते हैं या छोड़ देते हैं । जो कि बाहरी चीज को आश्रित करके साधु को हत्या-जन्य कर्मबंध नहीं होता । तो भी मुनि परिणाम की विशुद्धि के लिए पृथ्वीकाय आदि की जयणा करते हैं । यदि ऐसी जयणा न करे तो परिणाम की विशुद्धि किस प्रकार टिक पाए ? सिद्धांत में तुल्य प्राणीवध के परिणाम में भी बड़ा अंतर बताया है । तीव्र संक्लिष्ट परिणामवाले को सातवीं नरक प्राप्त हो और मंद परिणामवाला कहीं ओर जाए, उसी प्रकार निर्जरा भी परिणाम पर आधारीत है । इस प्रकार जो और जितने हेतु संसार के लिए हैं वो और उतने हेतु मोक्ष के लिए हैं । अतीत की गिनती करने बैठे तो दोनों में लोग समान आते हैं । रास्ते में जयणापूर्वक चले तो वो क्रिया मोक्ष के लिए होती है और ऐसे न चले तो वो क्रिया कर्मबंध के लिए होती
जिनेश्वर परमात्मा ने किसी चीज का एकान्त निषेध नहीं किया । ऐसे एकान्त विधि भी नहीं बताई । जैसे बिमारी में एक बिमारी में जिसका निषेध है वो दूसरे में विधि भी हो सकती है । जैसे क्रोध आदि सेवन से अतिचार होता है । वो ही क्रोध आदि भाव चंड़रूद्राचार्य की प्रकार शायद शुद्धि भी करवाते हैं । संक्षेप में कहा जाए तो बाहरी चीज को आश्रित करके कर्मबंध न होने के बावजूद साधु सदा जयणा के परिणाम पूर्वक जिन्दा रहे और मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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