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आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति का दोष है । जंगली जानवर, कूत्ते, चोर, काँटा, म्लेच्छ आदि प्रत्यपाय दोष हैं । सुष्क रास्ते के दो भेद - आक्रांत और अनाक्रांत । आक्रांत मार्ग के दो भेद । प्रत्यापाय और अप्रत्यापाय । प्रत्यापाय दोषवाले मार्ग में न जाते हुए अप्रत्यापाय मार्ग में जाए, मार्ग न मिले तो मिट्टीवाले मार्ग में, वो न मिले तो गीली पृथ्वीवाले मार्ग में, वो न हो तो मिश्र, वो न हो तो सचित्त ऐसे गमन करना चाहिए। सूत्र- ६३-६५
शर्दी-गर्मी में रजोहरण से पाँव प्रमार्जन करे । बरसात में पादलेखनिका से प्रमार्जन करे । यह पाद लेखनिका उदुम्बर वड़ या इमली के पेड़ की बनी बारह ऊंगली लम्बी और एक अंगुल मोटी होती है । दोनों और धारवाली कोमल होती है। और फिर हर एक साधु की अलग-अलग होती है । एक ओर की किनार से पाँव में लगी हुई सचित्त पृथ्वी को दूर करे दूसरी ओर से अचित्त पृथ्वी को दूर करे । सूत्र - ६६-७०
अपकाय दो प्रकार से है । भूमि का पानी और आकाश का पानी । आकाश के पानी के दो भेद धुम्मस और बारिस । यह दोनों देखकर बाहर न नीकले । नीकलने के बाद जैसे कि नजदीकी घर या पेड़ के नीचे खड़ा रहे। यदि वहाँ खड़े रहने में कोई भय हो तो 'वर्षाकल्प' बारिस के रक्षा का साधन ओढ़कर जाए । ज्यादा बारिस हो तो सूखे पेड़ पर चड़ जाए । यदि रास्ते में नदी आ जाए तो दूसरे रास्ते से या पुल पर से जाए । भूमि पर पानी हो तब प्रतिपृच्छा करके जाना, यह सब एकाकी नहीं है । परम्परा प्रतिष्ठ है । यदि नदी का पुल या अन्य कच्चा रास्ता हो, मिट्टी गिर रही हो, अन्य किसी भय हो तो उस रास्ते से नहीं जाना, प्रतिपक्षी रास्ते से जाना । यानि निर्भय या आलम्बन वाले रास्ते से या उस प्रकार के अन्य रास्ते से जाना । चलमान, अनाक्रान्त, भयवाला रास्ता छोड़कर अचल, आक्रान्त और निर्भय रास्ते से जाना, गीली मिट्टी का लेप हुआ हो तो नजदीक से पाँव को प्रमार्जन करना, पानी तीन भेद से बताया है । पत्थर पर से बहनेवाला, दलदल पर से बहनेवाला, मिट्टी पर से बहनेवाला । इन तीनों के दो भेद हैं, आक्रांत ओर अनाक्रांत । आक्रांत के दो भेद सप्रत्यपाय और अप्रत्यपाय क्रमशः पाषाण पर से बहता पानी फिर दलदल पर से... उस प्रकार से रास्ता पसंद करना। सूत्र - ७१-७६
आधी जंघा जितने पानी को संघट्ट कहते हैं, नाभि प्रमाण पानी को लेप और नाभि के ऊपर पानी हो तो लेपोपरी कहते हैं । संघट्ट नदी उतरने से एक पाँव पानी में और दूसरा पाँव ऊंचा रखें । उसमें से पानी बह जाए फिर वो पाँव पानी में रखे और पहला पाँव ऊपर रखे । उस प्रकार सामने के किनारे पहुँचे । फिर (इरियावही) कायोत्सर्ग करे । यदि निर्भय जल हो तो गृहस्थ स्त्री आदि उतर रहे हो तो पीछे-पीछे जाए । लयवाला पानी हो तो चौलपट्टे को ऊपर लेकर गाँठ बाँधे । लोगों के बीच उतरे क्योंकि शायद पानी में खींचे जाए तो लोग बचा ले । तट पर जाने के बाद चोलपट्टे का पानी बह जाए तब तक खड़ा रहे । यदि भय हो तो गीले चोलपट्टे को शरीर को न छूए उस प्रकार से लटकाकर रख के आगे जाए । नदी में उतरने से यदि वहाँ गृहस्थ न हो तो शरीर से चार अंगुल उपर लकड़ी से पानी नापे । यदि ज्यादा पानी हो तो उपकरण इकट्ठे करके बाँधे और बड़ा पात्र उल्टा करके शरीर के साथ बाँधकर तैरकर सामने के किनारे जाए । यदि नाँव में बैठकर उतरना पडे तो संवर यानि पच्चक्खाण करे, नाँव के बीच बैठे, नवकार स्मरण करे और किनारे पर उतरकर इरियावही करे । उतरते समय पहला या बाद में न उतरे लेकिन बीच में उतरे और पचीस श्वासोच्छवास प्रमाण काऊसग्ग करे । यदि नाँव न हो तो लकड़े या तुंब के सहारे से नदी पार करे सूत्र- ७७
रास्ते में जाते हुए वनदव लगा हो तो अग्नि आगे हो तो पीछे जाना, सामने आ रहा हो तो तृण रहित भूमि में खड़े रहना, तृण रहित भूमि न हो तो कंबल गीला करके ओढ़ ले और यदि ज्यादा अग्नि हो तो चमड़ा ओढ़ ले या उपानह धारण करके जाए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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