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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४, दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र दशा-३-आशातना आशातना यानि विपरीत व्यवहार, अपमान या तिरस्कार जो ज्ञान-दर्शन का खंडन करे, उसकी लघुता या तिरस्कार करे उसे आशातना कहते हैं । ऐसी आशातना के कईं भेद हैं । उसमें से यहाँ केवल-३३ आशातना ही कही है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण में अधिकतावाले या दीक्षा, पदवी आदि में बड़े हो उनके प्रति हुए अधिक अवज्ञा या तिरस्कार समान आशातना का यहाँ वर्णन है। सूत्र -४
हे आयुष्मान् ! उस निर्वाण प्राप्त भगवंत के स्व-मुख से मैंने इस प्रकार सूना है । यह आर्हत् प्रवचन में स्थविर भगवंत ने वाकई में ३३-आशातना प्ररूपी है। उस स्थविर भगवंत ने सचमुच कौन-सी ३३-आशातना बताई है ? वो स्थविर भगवंत ने सचमुच जो ३३-आशातना बताई है वह इस प्रकार है
१-९. शैक्ष (अल्प दीक्षा पर्यायवाले साधु) रत्नाधिक (बड़े दीक्षापर्याय या विशेष गुणवान् साधु) के आगे चले, साथ-साथ चले, अति निकट चले, आगे, साथ-साथ या अति निकट खड़े रहे, आगे, साथ-साथ या अति निकट बैठे।
१०-११. रात्निक साधु के साथ बाहर बिचार भूमि (मल त्याग जगह) गए शैक्ष कारण से एक ही जलपात्र ले गए हो उस हालात में वो शैक्ष रात्निक की पहले शौच-शुद्धि करे, बाहर बिचार भूमि या विहार भूमि (स्वाध्यायस्थल) गए हो तब रात्निक के पहले ऐर्यापथिक-प्रतिक्रमण करे ।
१२. किसी व्यक्ति रात्निक के पास वार्तालाप के लिए आए तब शैक्ष उसके पहले ही वार्तालाप करने लगे।
१३. रात या विकाल में (सन्ध्या के वक्त) यदि रात्निक शैक्ष को सम्बोधन करके पूछे कि हे आर्य ! कौनकौन सो रहे हैं और कौन-कौन जागते हैं तब वो शैक्ष, रात्निक या वचन पूरा सूना-अनसूना कर दे और प्रत्युत्तर न
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१४-१८. शैक्ष यदि अशन, पान, खादिम, स्वादिम समान आहार लाए तब उसकी आलोचना के पहले कोई शैक्ष के पास करे फिर रात्निक के पास करे, पहले किसी शैक्ष को बताए, निमंत्रित करे फिर रात्निक को दिखाए या निमंत्रणा करे, रात्निक के साथ गए हो तो भी उसे पूछे बिना जो-जो साधु को देने की ईच्छा हो उसे जल्द अधिक प्रमाण में वो अशन आदि दे और रात्निक साधु के साथ आहार करते वक्त प्रशस्त, उत्तम, रसयुक्त, स्निग्ध, रूखा आदि चीज उस शैक्ष को मनोकुल हो तो जल्द या ज्यादा प्रमाण में खाए।
१९-२१. रात्निक (गुणाधिक) शैक्ष (छोटे दीक्षा पर्यायवाले साधु) को बुलाए तब उसकी बात सूना-अनसूना करके मौन रहे, अपने स्थान पर बैठकर उनकी बात सूने लेकिन सन्मुख उपस्थित न हो, 'क्या कहा ?'' ऐसा कहे।
२२-२४. शैक्ष, रात्निक को तूं ऐसे एकवचनी शब्द बोले, उनके आगे निरर्थक बक-बक करे, उनके द्वारा कहे गए शब्द उन्हें कहकर सुनाए (तिरस्कार से ''तुम तो ऐसा कहते थे ऐसा सामने बोले ।)
२५-३०. जब रात्निक (गुणाधिक साधु) कथा कहते हो तब वो शैक्ष 'यह ऐसे कहना चाहिए'' ऐसा बोले, "तुम भूल रहे हो-तुम्हें याद नहीं है।'' ऐसा बोले, दुर्भाव प्रकट करे, (किसी बहाना करके) सभा विसर्जन करने के लिए आग्रह करे, कथा में विघ्न उत्पन्न करे, जब तक पर्षदा (सभा) पूरी न हो, छिन्न-भिन्न न हो या बैर-बिखेर न हो लेकिन हाजिर हो तब तक उसी कथा को दो-तीन बार कहे।
३१-३३. शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या या संथारा पर गलती से पाँव लग जाए तब हाथ जोड़कर क्षमा याचना किए बिना चले जाए, रात्निक की शय्या-संथारा पर खड़े रहे-बैठे या सो जाए या उससे ऊंचे या समान
आसन पर बैठे या सो जाए। उस स्थविर भगवंत ने सचमुच यह तैंतीस आशातना बताई है। ऐसा (उस प्रकार) मैं (तुम्हें) कहता हूँ।
दशा-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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