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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४, दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र दशा-२-सबला सबल का सामान्य अर्थ विशेष बलवान या भारी होता है । संयम के सामान्य दोष पहली दसा में बताए उसकी तुलना में बड़े या विशेष दोष का इस दसा में वर्णन है। सूत्र-३
हे आयुष्मान् ! वो निर्वाण प्राप्त भगवंत के स्वमुख से मैंने इस प्रकार सूना है । यह आर्हत् प्रवचन में स्थविर भगवंत ने वाकई ईक्कीस सबल (दोष) प्ररूपे हैं । वो स्थविर भगवंत ने वाकई कौन-से ईक्कीस सबल दोष बताए हैं ? स्थविर भगवंत ने निश्चय से जो ईक्कीस-सबल दोष बताए हैं वो इस प्रकार है
१. हस्त-कर्म करना, मैथुन सम्बन्धी विषयेच्छा को पोषने के लिए हाथ से शरीर के किसी अंग-उपांग आदि का संचालन आदि करना।
२. मैथुन प्रतिसेवन करना । ३. रात्रि भोजन करना । रात्रि को अशन, पान, खादिम या स्वादिम का आहार करना । ४. आधाकर्मिक-साधु के निमित्त से बने हुए आहार खाना । ५. राजा निमित्त से बने अशन-आदि आहार खाना ।
६. क्रित-खरीदे हुए, उधार लिए हुए, छिने हुए, आज्ञा बिना दिए गए या साधु के लिए सामने से लाकर दिया गया आहार खाना।
७. बार-बार प्रत्याख्यान करके, प्रत्याख्यान हो वो ही अशन-आदि लेना। ८. छ मास के भीतर एक गण में से दूसरे गण में गमन करना। ९. एक मास में तीन बार (जलाशय आदि करके) उदक लेप यानि सचित्त पानी का संस्पर्श करना । १०. एक मास में तीन बार माया-स्थल (छल-कपट) करना। ११. सागारिक (गृहस्थ, स्थानदाता या सज्जातर) के अशन आदि आहार खाना ।
१२-१५. जान-बूझकर प्राणातिपात (जीव का घात), मृषावाद (असत्य बोलना), अदत्तादान (नहीं दी गई चीज का ग्रहण), सचित्त पृथ्वी या सचित्त रज पर कायोत्सर्ग, बैठना, सोना, स्वाध्याय आदि करना ।
१६-१८. जान-बूझकर स्निग्ध, गीली, सचित्त रजयुक्त पृथ्वी पर, सचित्त शीला, पत्थर, धुणावाला या सचित्त लकड़े पर, अंड बेइन्द्रिय आदि जीव, सचित्त बीज, तृण आदि झाकल-पानी, चींटी के नगर-सेवाल-गीली मिट्टी या मकड़ी के जाले से युक्त ऐसे स्थान पर कायोत्सर्ग, बैठना, सोना, स्वाध्याय आदि क्रिया करना । मूल, कंद, स्कंध, छिलका, कुंपण, पत्ते, बीज और हरित वनस्पति का भोजन करना।
१९-२०. एक साल में दस बार उदकलेप (जलाशय को पार करने के द्वारा जल संस्पर्श) और माया-स्थान (छल कपट) करना।
२१. जान-बूझकर सचित्त पानी युक्त हाथ, पात्र, कड़छी या बरतन से कोई अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार दे तब ग्रहण करना। स्थविर भगवंत ने निश्चय से यह २१ सबल दोष कहे हैं । उस प्रकार मैं कहता हूँ।
यहाँ अतिक्रम-व्यतिक्रम और अतिचार वो तीन भेद से सबल दोष की विचारणा करना । दोष के लिए सोचना वो अतिक्रम, एक भी डग भरना वो व्यतिक्रम और प्रवृत्ति करने की तैयारी यानि अतिचार (दोष का सेवन तो साफ अनाचार ही है।) इस सबल दोष का सेवन करनेवाला सबल-आचारी कहलाता है।
जो कि सबल दोष की यह गिनती केवल २१ नहीं है। वो तो केवल आधार है । ये या इनके जैसे अन्य दोष भी यहाँ समझ लेना।
दशा-२-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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