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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र-४, ‘दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक/सूत्र करे तो वहाँ आना या जाना न कल्पे, कदाचित् कोई हाथ पकड़ के बाहर नीकालना चाहे तो भी उसका सहारा न नीकले, किन्तु यतनापूर्वक चलते हुए बाहर नीकले ।
मासिकी भिक्षुप्रतिमा धारक साधु के पाँव में काँटा, कंकर या काँच घूस जाए, आँख में मच्छर आदि सूक्ष्म जंतु, बीज, रज आदि गिरे तो उसको नीकालना अथवा शुद्धि करना न कल्पे, किन्तु यतनापूर्वक चलते रहना कल्पे।
मासिकी भिक्षुप्रतिमा धारी साधु को विचरण करते हुए जहाँ सूर्यास्त हो जाए वहीं ही रहना चाहिए । वहाँ जल हो या स्थल, दुर्गम मार्ग हो या निम्न मार्ग, पर्वत हो या विषम मार्ग, खड्डा हो या गुफा हो, रातभर वहीं ही रहना चाहिए, एक कदम भी आगे नहीं जा सकता । सुबह में प्रभात होने से सूर्य जाज्वल्यमान होने के बाद किसी भी दिशा में यतनापूर्वक गमन करना कल्पता है । मासिकी भिक्षुप्रतिमा धारक साधु को सचित्त पृथ्वी पर निद्रा लेना या लैटना न कल्पे, केवली भगवंत ने उसे कर्मबन्ध का कारण बताया है । वह साधु उस प्रकार निद्रा लेवे या लैटे तब अपने हाथ से भूमि का स्पर्श करता है तब जीवहिंसा होती है इसलिए उसे सूत्रोक्त विधि से निर्दोष स्थान में रहना या विचरण करना चाहिए।
यदि वह साधु को मल-मूत्र की शंका होवे तब उसे रोकना नहीं चाहिए, किन्तु पहले प्रतिलेखित भूमि पर त्याग करना चाहिए, वापस उसी उपाश्रय में आकर सूत्रोक्त विधि से निर्दोष स्थान में रहना चाहिए।
मासिकी भिक्षु प्रतिमाधारक साधु को सचित्त रजवाले शरीर के साथ गृहस्थ या गृहसमुदाय में भोजन-पान के लिए जाना या वहाँ से नीकलना न कल्पे । यदि उसे ज्ञात हो जाए कि शरीर पर सचित्त रज पसीने से अचित्त हो गई है, तब उसे वहाँ प्रवेश या निर्गमन करना कल्पे । उसको अचित्त ऐसे ठंड़े या गर्म पानी से हाथ, पाँव, दाँत, आँख या मुख एक बार या बारबार धोना न कल्पे, सीर्फ मल-मूत्रादि से लिप्त शरीर या भोजन-पान से लिप्त हाथ या मुख धोना कल्पता है।
मासिकी भिक्षुप्रतिमा धारी साधु के सामने अश्व, बैल, हाथी, भैंस, सिंह, वाघ, भेडीया, रीछ, चित्ता, तेंदुक, पराशर, कुत्ता, बिल्ली, साप, ससला, शियाल, भंड आदि हिंसक प्राणी आ जाए तब भयभीत होकर एक कदम भी पीछे खीसकना न कल्पे । इसी प्रकार ठंड लगे तब धूप में या गर्मी लगे तब छाँव में जाना न कल्पे, किन्तु जहाँ जैसी ठंड या गर्मी हो वह उसे सहन करना चाहिए।
मासिकी भिक्षुप्रतिमा को वह साधु सूत्र, आचार या मार्ग में जिस प्रकार कही हो उसी प्रकार से सम्यक्तया स्पर्श करना, पालन करना, शुद्धिपूर्वक कीर्तन और आराधना करना चाहिए, तभी वह साधु जिनाज्ञापालक होता है सूत्र - ५०
द्विमासिकी भिक्षप्रतिमा धारक साध हमेशा काया के ममत्व का त्याग किया हआ, इत्यादि सर्व कथन प्रथम भिक्षुप्रतिमा समान जानना । विशेष यह कि भोजन-पानी की दो दत्ति ग्रहण करना कल्पे तथा दूसरी प्रतिमा का पालन दो मास तक करे, इसी प्रकार से भोजन-पानी की एक एक दत्ति और एक-एक मास की प्रतिमा का पालन सात दत्ति पर्यन्त समझ लेना । अर्थात् तीसरी प्रतिमा-तीन दत्ति-तीन मास इत्यादि सात पर्यन्त जानना । सूत्र-५१
अब आठवीं भिक्षुप्रतिमा बताते हैं, प्रथम सात रात्रिदिन के आठवीं भिक्षुप्रतिमा धारक साधु सर्वदा काया के ममत्व रहित-यावत् उपसर्ग आदि को सहन करे वह सब प्रथम प्रतिमा समान जानना । उस साधु को निर्जल चोथ भक्त के बाद अन्न-पान लेना कल्पे, गाँव यावत् राजधानी के बाहर उत्तासन, पार्वासन या निषद्यासन से कायोत्सर्ग करे, देव-मनुज या तिर्यंच सम्बन्धी जो कोई उपसर्ग उत्पन्न होवे तो उन उपसर्ग से उन साधु को ध्यान से चलित या पतित होना न कल्पे । यदि मलमूत्र की बाधा होवे तो पूर्व प्रतिलेखित स्थान में जा कर त्याग करे किन्तु रोके नहीं, फिर वापस विधिपूर्वक आकर अपने स्थान में कायोत्सर्ग में स्थिर रहे । इस प्रकार वह साधु प्रथमा एक सप्ताहरूप आठवीं प्रतिमा का सूत्रानुसार पालन करता यावत् जिनाज्ञाधारी होता है। मुनि दीपरत्रसागर कृत् “(दशाश्रुतस्कन्ध)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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