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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र- ४, 'दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक / सूत्र
इसी प्रकार नववीं-दूसरी एक सप्ताह की प्रतिमा होती है । विशेष यही कि इस प्रतिमाधारी साधु को दंड़ासन, लंगड़ासन या उत्कटुकासन में स्थित रहना चाहिए। दशवीं तीसरी एक सप्ताह की प्रतिमा के आराधन काल में उसे गोदोहिकासन, वीरासन या आम्रकुब्जासन में स्थित रहना चाहिए ।
सूत्र ५२
इसी प्रकार ग्यारहवीं-एक अहोरात्र की भिक्षुप्रतिमा के सम्बन्ध में जानना । विशेष यह कि निर्जल षष्ठभक्त करके अन्न-पान ग्रहण करना, गाँव यावत् राजधानी के बाहर दोनों पाँव सकुड़कर और दोनों हाथ घुटने पर्यन्त लम्बे रखकर कायोत्सर्ग करना । शेष पूर्ववत् यावत् जिनाज्ञानुसार पालन करनेवाला होता है ।
अब बारहवीं भिक्षुप्रतिमा बताते हैं- एक रात्रि की बारहवीं भिक्षुप्रतिमा धारक साधु काया के ममत्व रहित इत्यादि सब कथन पूर्ववत् जानना । विशेष यह कि निर्जल अष्टम भक्त करे, उसके बाद अन्न-पान ग्रहण करे। गाँव यावत् राजधानी के बाहर जाकर शरीर को थोड़ा आगे झुकाकर एक पुद्गल पर दृष्टि रख के अनिमेष नेत्रों से निश्चल अंगयुक्त सर्व इन्द्रियों का गोपन करके दोनों पाँव सकुड़कर, दोनों हाथ घूँटने तक लटकते रखे हुए कायोत्सर्ग करे, देव-मनुज या तिर्यंच के उपसर्ग सहे, किन्तु इसे चलित या पतित होना न कल्पे । मलमूत्र की बाधा पूर्वोक्त विधि का पालन करके कायोत्सर्ग में स्थिर हो जाए ।
एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा का सम्यक् पालन न करनेवाले साधु के लिए तीन स्थान अहितकर, अशुभ, असामर्थ्यकर, अकल्याणकर, एवं दुःखद भावियुक्त होता है; उन्माद की प्राप्ति, लम्बे समय के लिए रोग की प्राप्ति, केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होना । तीन स्थान हितकर, शुभ, सामर्थ्यकर, कल्याणकर एवं सुखद भावियुक्त होते हैं-अवधि, मनःपर्यव एवं केवलज्ञान की उत्पत्ति । इस प्रकार यह एक रात्रि की - बारहवीं भिक्षुप्रतिमा को सूत्र - कल्प-मार्ग तथा यथार्थरूप से सम्यक् प्रकार से स्पर्श, पालन, शोधन, पूरण, कीर्तन तथा आराधन करनेवाले जिनाज्ञा के आराधक होते हैं ।
इन बारह भिक्षुप्रतिमाओं को निश्चय से स्थविर भगवंतो ने बताई है ।
दशा-७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
दशा-८- पर्युषणा
सूत्र - ५३
उस काल, उस समय में श्रमण भगवान महावीर की पाँच घटनाएं उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुई । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में - देवलोक से च्यवन, गर्भसंक्रमण, जन्म, दीक्षा तथा अनुत्तर अनंत अविनाशी निरावरण केवल ज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति । भगवंत स्वाति नक्षत्र में परिनिर्वाण प्राप्त हुए। यावत् इस पर्युषणकल्प का पुनः पुनः उपदेश किया गया है। (यहाँ 'यावत् ' शब्द से च्यवन से निर्वाण तक पूरा महावीर चरित्र समझ लेना चाहिए ।)
दशा-८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( दशाश्रुतस्कन्ध)” आगम सूत्र - हिन्दी अनुवाद”
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