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आगम सूत्र ३७, छेदसूत्र ४, 'दशाश्रुतस्कन्ध'
उद्देशक / सूत्र किसी के द्वारा एक या ज्यादा बार पूछने से उसे दो भाषा बोलना कल्पे । यदि वो जानता हो तो कहे कि "मैं जानता हूँ" यदि न जानता हो तो कहे कि "मैं नहीं जानता'' इस प्रकार के आचरण पूर्वक विचरते यह जघन्य से एक, दो, तीन दिन, उत्कृष्ट से दश महिने तक सूत्रोक्त मार्ग अनुसार इस प्रतिमा का पालन करते हैं । यह (उद्दिष्ट भोजन त्याग नामक) दशवीं उपासक प्रतिमा ।
सूत्र ४७
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अब ग्यारहवी उपासक प्रतिमा कहते हैं ।
वो सर्व (साधु श्रावक) धर्म की रूचिवाला होने के बावजूद उक्त सर्व प्रतिमा को पालन करते हुए उद्दिष्ट भोजन परित्यागी होता है। वो सिर पर मुंडन करवाता है या लोच करता है। वो साधु आचार और पात्र - उपकरण ग्रहण करके भ्रमण-निर्ग्रन्थ का वेश धारण करता है। उनके लिए प्ररूपित श्रमणधर्म को सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करते और पालन करते हुए विचरता है। चार हाथ प्रमाण भूमि देखकर चलता है (उस प्रकार से ईया समिति का पालन करते हुए) त्रस जानवर को देखकर उनकी रक्षा के लिए पाँव उठा लेता है, पाँव सिकुड़ लेता है । या टेढ़े पाँव रखकर चलता है (उस प्रकार से जीव रक्षा करता है) जीव व्याप्त मार्ग छोड़कर मुमकिन हो तो दूसरे विद्यमान मार्ग पर चलता है । जयणापूर्वक चलता है लेकिन पूरी प्रकार जाँच किए बिना सीधी राह पर नहीं चलता, केवल ज्ञाति वर्ग के साथ उसके प्रेम बंधन का विच्छेद नहीं होता।
इसलिए उसे ज्ञाति के लोगों में भिक्षावृत्ति के लिए जाना कल्पे । (मतलब की वो रिश्तेदार के वहाँ से आहार ला सकता है ।) स्वजन रिश्तेदार के घर पहुँचे उससे पहले चावल बन गए हो और मुँग की दाल न हुई हो तो चावल लेना कल्पे लेकिन मुँग की दाल लेना न कल्पे यदि पहले मुँग की दाल हुई हो और चावल न हुए हो तो मुँग की दाल लेना कल्पे लेकिन चावल लेना न कल्पे । यदि उनके पहुँचने से पहले दोनों तैयार हो तो दोनों लेना कल्पे । यदि उनके पहुँचने से पहले दोनों में से कुछ भी न हुआ हो तो दोनों में से कुछ भी लेना न कल्पे । यानि वो पहुँचे उससे पहले जो चीज तैयार हो वो लेना कल्पे और उनके जाने के बाद बनाई कोई चीज लेना न कल्पे ।
जब वो (श्रमणभूत) उपासक गृहपति के कुल (घर) में आहार ग्रहण करने की ईच्छा से प्रवेश करे तब उसे इस प्रकार से बोलना चाहिए- 'प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो ।" इस प्रकार के आचरण पूर्वक विचरते उस उपासक को देखकर शायद कोई पूछे, "हे आयुष्मान् ! तुम कौन हो ?" वो बताओ। तब उसे पूछनेवाले को कहना चाहिए कि, "मैं प्रतिमाधारी श्रमणोपासक हूँ ।"
इस प्रकार के आचरण पूर्वक विचरते वह जघन्य से एक, दो या तीन दिन से, उत्कृष्ट ११ महिने तक विचरण करे | यह ग्यारहवी (श्रमणभूत नामक ) उपासक प्रतिमा ।
इस प्रकार वो स्थविर भगवंत ने निश्चय से ग्यारह उपासक प्रतिमा (श्रावक को करने की विशिष्ट ११ प्रतिज्ञा) बताई है । उस प्रकार मैं (तुम्हें) कहता हूँ ।
दशा-६ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( दशाश्रुतस्कन्ध)' आगम सूत्र- हिन्दी अनुवाद"
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