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आगम सूत्र ३५, छेदसूत्र-२, 'बृहत्कल्प'
उद्देशक/सूत्र ऐसा स्थान, वहाँ साध्वी का रहना न कल्पे, साधु का रहना कल्पे । (इस स्थान में साध्वी के ब्रह्मचर्य भंग की संभावना है इसलिए न कल्पे ।) सूत्र-१४-१५
बिना दरवाजे के खुले द्वारवाले उपाश्रय में साध्वी को रहना न कल्पे, साधु को रहना कल्पे । खुले दरवाजे वाले उपाश्रय में एक पर्दा बाहर लगाकर, एक भीतर लगाकर, भीतर की ओर धागेवाला या छिद्रवाला कपड़ा बाँधकर साध्वी का रहना कल्पे । (बाहर आते-जाते तरुण पुरुष, बारात आदि देखकर साध्वी के चित्त की चंचलता होनी संभवित है इसलिए न कल्पे ।) सूत्र - १६-१७
साध्वी को भीतर की ओर लेपवाला घटी मात्रक (मातृ करने का भाजन) रखना और इस्तमाल करना कल्पे लेकिन, साधु को न कल्पे । (साध्वी बन्द वसति में होती हैं इसीलिए परठने को जरुरी है । साधु को खुली वसति में रहना होता है इसलिए मात्रक जरुरी नहीं होता ।) सूत्र-१८
साधु-साध्वी को वस्त्र की बनी हुई चिलिमिलिका (मच्छरदानी) रखना और इस्तमाल करना कल्पे । सूत्र-१९
साधु-साध्वी को जलाशय के किनारे खड़ा रहना, बैठना, सोना, अशन आदि आहार खाना, पीना, मलमूत्र, श्लेष्म, नाक का मैल आदि का त्याग करना, स्वाध्याय, धर्म, जागरण करना या कायोत्सर्ग करना न कल्पे। सूत्र - २०-२१
साधु-साध्वी को सचित्र उपाश्रय में रहना न कल्पे, चित्ररहित उपाश्रय में रहना कल्पे । (चित्र राग आदि उत्पत्ति का निमित्त बन सकता है।) सूत्र-२२-२४
साध्वी को सागारिक की निश्रा रहित उपाश्रय में रहना न कल्पे, लेकिन निश्रावाले उपाश्रय में रहना कल्पे, साधु को दोनों प्रकार से रहना कल्पे । (साधुवर्ग सशक्त, दृढ़चित् और निर्भय हो इसलिए कल्पे ।) सूत्र - २५
साधु-साध्वी को सागारिक उपाश्रय में रहना न कल्पे, अल्प सागारिक उपाश्रय में रहना कल्पे । (सागारिक यानि जहाँ आगार-गृहसम्बन्धी वस्तु, चित्र आदि रहे हो ।) सूत्र-२६-२९
साधु को स्त्री सागारिक उपाश्रय में रहना न कल्पे, साध्वीओं को कल्पे, साधुओं को पुरुष सागारिक उपाश्रय में रहना कल्पे, साध्वीओं को न कल्पे । सूत्र-३०-३१
साधुओं को प्रतिबद्ध आबादी में रहना न कल्पे, साध्वीओं को कल्पे । (उपाश्रय की दिवाल या उपाश्रय का किसी हिस्सा गृहस्थ के घर के साथ जुड़ा हो तो वो प्रतिबद्ध कहलाता है ।) सूत्र-३२-३३
घर के बीच होकर जिस उपाश्रय में आने-जाने का मार्ग हो उस उपाश्रय में साधु का रहना न कल्पे, साध्वी का रहना कल्पे। सूत्र- ३४
साधु-साध्वी किसी के साथ कलह होने के बाद क्षमा याचना करके कलह को उपशान्त करे, प्रायश्चित्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(बृहत्कल्प)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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