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आगम सूत्र ३५, छेदसूत्र-२, 'बृहत्कल्प'
उद्देशक/सूत्र आदि से कलह न करने के लिए प्रतिबद्ध होकर खुद भी उपशान्त हो जाए उसके बाद जिसके साथ क्षमायाचना की हो उसकी ईच्छा हो तो भी आदर-सन्मान, वंदन-सहवास, उपशमन करे और ईच्छा न हो तो आदर आदि न करे, जो उपसमता है उसे आराधना है, जो उपशमक नहीं है उसे आराधना नहीं है, हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा? क्योंकि श्रमण जीवन में उपशम ही श्रामण्य का सार है। सूत्र-३५-३६
साधु-साध्वी को बारिस में विहार करना न कल्पे, शर्दी-गर्मी में विहार करना कल्पे । सूत्र-३७
साधु-साध्वी की विरुद्ध-अराजक या विरोधी राज में जल्द या बार-बार आना-जाना या आवागमन न कल्पे। जो साधु-साध्वी इस प्रकार करे-करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो वो तीर्थंकर ओर राजा दोनों की आज्ञा का अतिक्रमण करता है और अनुद्घातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान प्रायश्चित्त के योग्य होते हैं । ('वेरज्ज' शब्द के अर्थ कईं हैं, बरसों से चला आता वैर, दो राज्य के बीच वैर हो, जहाँ पास के राज्य के गाँव आदि जला देनेवाला राजा हो, जिसके मंत्री सेनापति राजा विरुद्ध हो आदि । सूत्र- ३८-३९
गृहस्थ के घर में आहार के लिए आए या विचार (स्थंडिल) भूमि या स्वाध्यायभूमि जाने के लिए बाहर नीकलनेवाले साधु को कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण के लिए पूछे तब वस्त्र आदि को आगार के साथ ग्रहण करे, लाए गए वस्त्र आदि को आचार्य के चरणों में रखकर दूसरी बार आज्ञा लेकर अपने पास रखना या उसका इस्तमाल करना कल्पे। सूत्र-४०-४१
गृहस्थ के घर में आहार के लिए गए या विचार (स्थंडिल) भूमि या स्वाध्याय भूमि जाने के लिए नीकले साध्वी को किसी वस्त्र आदि ग्रहण करने के लिए पूछे तो आगार रखकर वस्त्र आदि ग्रहण करे, लाए हुए वस्त्र आदि को प्रवर्तिनी के चरणों में रखकर पुनः आज्ञा लेकर उसे अपने पास रखना या इस्तमाल करना कल्पे । सूत्र- ४२-४७
साधु-साध्वी को रात को या विकाल को (संध्याकाल) १. पूर्वप्रतिलेखित शय्या संस्तारक छोड़कर अशन, पान, खादिम, स्वादिम लेना न कल्पे, उसी तरह, २. चोरी करके या लिनकर ले गए वस्त्र का इस्तमाल करके धोकर, रंगकर, वस्त्र पर की निशानी मिटाकर, फेरफार करके या सुवासित करके भी यदि कोई दे जाए तो ऐसे आहृत-चाहत वस्त्र अलावा के वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण लेना न कल्पे, ३. मार्गगमन करना न कल्पे, ४. संखड़ि में जाना या संखड़ि (बड़ा जीमणवार) के लिए अन्यत्र जाना न कल्पे । सूत्र-४८-४९
रात को या संध्या के वक्त स्थंडिल या स्वाध्याय भूमि जाने के लिए उपाश्रय के बाहर जाना-आना अकेले साधु या साध्वी को न कल्पे । साधु को एक या दो साधु के साथ और साध्वी को एक, दो, तीन साध्वी साथ हो तो बाहर जाना कल्पे। सूत्र-५०
साधु-साध्वी को पूर्व में अंग, मगध, दक्खण में कोशाम्बी, पश्चिम में थूणा, उत्तर में कुणाल तक जाना कल्पे इतना ही आर्य क्षेत्र है उसके बाहर जाना न कल्पे । ज्ञान-दर्शन-चारित्र वृद्धि की संभावना हो तो जा सके (ऐसा मैं तुम्हें कहता हूँ ।)
उद्देशक-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(बृहत्कल्प)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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