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आगम सूत्र ३३, पयन्नासूत्र-१०, 'वीरस्तव' सूत्र-१३
सिद्धि के संग से दूसरे मोहशत्रु के विजेता हो, अनन्त सुख, पुण्य परिणति से परिवेष्टित हो इसलिए देव हो सूत्र - १४
राग आदि वैरी को दूर करके, दुःख और क्लेश का समाधान किया है यानि निवारण किया है । गुण आदि से शत्रु को आकर्षित करके जय किया है इसलिए हे जिनेश्वर ! तुम देव हो । सूत्र - १५, १६
दुष्ट ऐसे आठ कर्म की ग्रंथि को प्राप्त धन समूह को दूर किया है उत्तम मल्लसमूह को आकलन करके तप से शुद्ध किया । मतलब तप द्वारा कर्म समान मल्ल को खत्म किया है इसलिए तुम वीर हो ।
प्रथम व्रत ग्रहण के दिन इन्द्र के विनयकरण की ईच्छा का निषेध कर के तुम उत्तम मुनि हुए इसलिए तुम महावीर हो। सूत्र - १७
चल रहे या नहीं चल रहे प्राणी ने आपको दुभाए या भक्ति की, आक्रोश किया या स्तुति की । शत्रु या मित्र बने, तुमने करुणा रस से मन को रंजित किया इसलिए तुम परम कारुणिक (करुणावाले) हो । सूत्र- १८
दूसरों के जो भाव-सद्भाव या भावना जो हए - जो होंगे या होते हैं उस ज्ञान द्वारा तुम जानते हो - कहते हो इसलिए तुम सर्वज्ञ हो। सूत्र-१९
समस्त भुवन में अपने-अपने स्वरूप में रहे सामान्य, बलवान् या कमझोर को (तुम देखते हो) इसलिए तुम सर्वदर्शी हो। सूत्र-२०
कर्म और भव का पार पाया है या श्रुत समान जलधि को जानकर उसका सर्व तरह से पार पाया है इसलिए तुमको पारग कहा है। सूत्र - २१
वर्तमान, भावि और भूतवर्ती जो चीज हो उसको हाथ में रहे आँबला के फल की तरह तुम जानते हो इसलिए त्रिकालविद हो। सूत्र - २२
अनाथ के नाथ हो । भयंकर गहन भवन में रहे हए जीव को उपदेश दान से मार्ग समान नयन देते हो इसलिए तुम नाथ हो। सूत्र - २३
प्राणीओं के चित्त में प्रवेश करनेवाली अच्छी तरह की चीज का राग-रति उस रागरूप को पुनःदोष रूप से समझाया है या विपरीत किया है मतलब कि राग दूर किया है इसलिए वीतराग हो । सूत्र- २४
कमल समान आसन है इसलिए हरि-इन्द्र हो । सूर्य या इन्द्र प्रमुख के मान का खंडन किया है इसलिए शंकर हो । हे जिनेश्वर ! एक समान मुख आश्रय तुमसे मिलते हैं वो भी तुम ही हो । सूत्र-२५
जीव का मर्दन, चूर्णन, विनाश भक्षण, हत्या, हाथ-पाँव का विनाश, नाखून, होठ का विदारण, इस कार्य का जिसका लक्ष्य या आश्रयज्ञान है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत्-(वीरस्तव)- आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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