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________________ आगम सूत्र २१,उपांगसूत्र-१०, 'पुष्पिका' अध्ययन/सूत्र आध्यात्मिक सिद्धान्तों के आशय के प्रति उसे संशय नहीं रहेगा । लब्धार्थ, गृहीतार्थ, विनिश्चितार्थ होने से उसकी अस्थि और मज्जा तक धर्मानुराग से अनुरंजित हो जाएगी। इसीलिए वह दूसरों को संबोधित करते हुए उद्घोषणा करेगी-आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है, परमार्थ है, इसके सिवाय अन्यतीर्थिकों का कथन कुगति-प्रापक होने से अनर्थ है । असद् विचारों से विहीन होने के कारण उसका हृदय स्फटिक के समान निर्मल होगा, निर्ग्रन्थ श्रमण भिक्षा के लिए सुगमता से प्रवेश कर सकें, अतः उसके घर का द्वार सर्वदा खुला होगा । सभी के घरों में उसका प्रवेश प्रीतिजनक होगा । चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी को परिपूर्ण पौषधव्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते हुए श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय-निर्दोष आहार, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक-आसन, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, औषध, भेषज से प्रतिलाभित करती हुई एवं यथाविधि ग्रहण किए हुए विविध प्रकार के शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवासों से आत्मा को भावित करती हुई रहेगी। सुव्रता आर्या किसी समय ग्रामानुग्राम में विचरण करती हुई यावत् पुनः बिभेल संनिवेश में आएंगी । तब वह सोमा ब्राह्मणी हर्षित एवं संतुष्ट हो, स्नान कर तथा अलंकारों से विभूषित हो पूर्व की तरह दर्शनार्थ नीकलेगी यावत् वंदन-नमस्कार करके धर्म श्रवण कर यावत् सुव्रता आर्या से कहेगी-मैं राष्ट्रकूट से पूछकर आपके पास मुंडित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती हूँ | तब सुव्रता आर्या कहेंगी-देवानुप्रिये ! तुम्हें जिसमें सुख हो वैसा करो, किन्तु शुभ कार्य में विलम्ब मत करो। - इसके बाद सोमा ब्राह्मणी उन सुव्रता आर्याओं को वंदन-नमस्कार करके जहाँ राष्ट्रकूट होगा, वहाँ आएगी। दोनों हाथ जोड़कर पूर्व के समान पूछेगी कि आपकी आज्ञा लेकर आनगारिक प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। इस बात को सूनकर राष्ट्रकूट कहेगा-देवानुप्रिये! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, इस के पश्चात् राष्ट्रकूट विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम चार प्रकार के भोजन बनवाकर अपने मित्र जाति-बांधव, स्वजन, संबन्धियों को आमंत्रित करेगा इत्यादि, पूर्वभव में सुभद्रा के समान यहाँ भी वह प्रव्रजित होगी और आर्या होकर ईर्यासमिति आदि समितियों एवं गुप्तियों से युक्त होकर यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी होगी। तदनन्तर वह सोमाआर्या सुव्रताआर्या से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करेगी । विविध प्रकार के बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादशभक्त आदि विचित्र तपःकर्म से आत्मा को भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करेगी। मासिक संलेखना से आत्मा शुद्ध कर, अनशन द्वारा साठ भोजनों को छोड़कर, आलोचना प्रतिक्रमणपूर्वक समाधिस्थ हो, मरण करके देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी । उस सोमदेव की दो सागरोपम की स्थिति होगी। तब गौतमस्वामी ने पूछा-'भदन्त ! वह सोम देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के अनन्तर देवलोक से च्यवकर कहाँ जाएगा ? 'हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अंत करेगा ।' 'आयुष्मन् जम्बू ! इस प्रकार से भगवान महावीर ने पुष्पिका के चतुर्थ अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है । ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-४-का मुनि दीपरत्नसागरकृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् (पुष्पिका) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 18
SR No.034688
Book TitleAgam 21 Pushpika Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 21, & agam_pushpika
File Size2 MB
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