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आगम सूत्र २१,उपांगसूत्र-१०, 'पुष्पिका'
अध्ययन/सूत्र
हुए उस सोमा ब्राह्मणी को विचार उत्पन्न होगा-'मैं इन बहुत से अभागे, दुःखदायी एक साथ थोड़े-थोड़े दिनों के बाद उत्पन्न हुए छोटे-बड़े और नवजात बहुत से दारक-दारिकाओं यावत् बच्चे-बच्चियों में से यावत् उनके मल-मूत्रवमन आदि से लिपटी रहने के कारण अत्यन्त दुर्गन्धमयी होने से राष्ट्रकूट के साथ भोगों का अनुभव नहीं कर पा रही हूँ । वे माताएं धन्य हैं यावत् उन्होंने मनुष्यजन्म और जीवन का सुफल पाया है, जो वंध्या हैं, प्रजननशीला नहीं होने से जानु-कूर्पूर की माता होकर सुरभि सुगंध से सुवासित होकर विपुल मनुष्य सम्बन्धी भोगोपभोगों को भोगती हुई समय बीताती हैं।
सोमा ने जब ऐसा विचार किया कि उस काल और उसी समय ईर्या आदि समितिओं से युक्त यावत् बहुतसी साध्वीयों के साथ सुव्रता नाम की आर्याएं उस बिभेल सन्निवेश में आएंगी और अनगारोचित अवग्रह लेकर स्थित होंगी।
तदनन्तर उन सुव्रता आर्याओं का एक संघाड़ा बिभेल सन्निवेश के उच्च, सामान्य और मध्यम परिवारों में गृहसमुदानी भिक्षा के लिए घूमता हुआ राष्ट्रकूट के घर में प्रवेश करेगा । तब वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं को
हर्षित और संतुष्ट होगी । शीघ्र ही अपने आसन से उठेगी, सात-आठ डग उनके सामने आएगी। वंदन-नमस्कार करेगी और विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन से प्रतिलाभित करके कहेगी-'आर्याओ ! राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगते हुए यावत् मैंने प्रतिवर्ष बालक-युगलों को जन्म देकर सोलह वर्ष में बत्तीस बालकों का प्रसव किया है। जिससे मैं उन दुर्जन्मा यावत् बच्चों के मल-मूत्र-वमन आदि से सनी होने के कारण अत्यन्त दर्गन्धित शरीरवाली हो राष्टकट के साथ भोगोपभोग नहीं भोग पाती हैं। आर्याओ ! मैं आप से धर्म सनना चाहती हूँ । तब वे आर्याएं सोमा ब्राह्मणी को यावत् केवलिप्ररूपित धर्म का उपदेश सुनाएंगी।
तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी उन आर्यिकाओं से धर्मश्रवण कर और उसे हृदय में धारण कर हर्षित और संतुष्टयावत् विकसितहृदयपूर्वक उन आर्याओं को वंदन-नमस्कार करेगी । और कहेगी-मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ यावत् उसे अंगीकार करने के लिए उद्यत हूँ । निर्ग्रन्थप्रवचन इसी प्रकार का है यावत् जैसा आपने प्रति-पादन किया है । किन्तु मैं राष्ट्रकूट से पूछूगी । तत्पश्चात् आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर प्रव्रजित होऊंगी।
देवानुप्रिय ! जैसे सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो । तत्पश्चात् वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूट के निकट जाकर दोनों हाथ जोड़ कहेंगी-मैंने आर्याओं से धर्मश्रवण किया है और वह धर्म मुझे ईच्छित है-यावत् रुचिकर लगा है। इसलिए आपकी अनुमति लेकर मैं सुव्रता आर्या से प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ।
तब राष्ट्रकूट कहेगा-अभी तुम मुंडित होकर यावत् घर छोड़कर प्रव्रजित मत होओ किन्तु अभी तुम मेरे साथ विपुल कामभोगों का उपभोग करो और भुक्तभोगी होने के पश्चात् यावत् गृहत्याग कर प्रव्रजित होना । राष्ट्रकूट के इस सुझाव को मानने के पश्चात् सोमा ब्राह्मणी स्नान कर, कौतुक मंगल प्रायश्चित्त कर यावत् आभरणअलंकारों से अलंकृत होकर दासियों के समूह से घिरी हुई अपने घर से नीकलेगी । बिभेल सन्निवेश के मध्यभाग को पार करती हई सुव्रता आर्याओं के उपाश्रय में आएगी । आकर सुव्रता आर्याओं को वंदन-नमस्कार करके उनकी पर्युपासना करेगी।
तत्पश्चात वे सुव्रता आर्या उस सोमा ब्राह्मणी को कर्म से जीव बद्ध होते हैं-इत्यादिरूप केवलिप्ररूपित धर्मोपदेश देंगी। तब वह सोमा ब्राह्मणी बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करेगी और फिर सुव्रता आर्या को वंदन-नमस्कार करेगी । वापिस लौट जाएगी।
तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका हो जाएगी । वह जीव-अजीव पदार्थों के स्वरूप की ज्ञाता, पुण्यपाप के भेद की जानकार, आस्रव-संवर-निर्जरा-क्रिया-अधिकरण तथा बंध-मोक्ष के स्वरूप को समझने में निष्णात, परतीर्थियों के कुतर्कों का खण्डन करने में स्वयं समर्थ होगी । देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवता भी उसे निर्ग्रन्थप्रवचन से विचलित नहीं कर सकेंगे । निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करेगी । आत्मोत्थान के सिवाय अन्य कार्यों में उसकी अभिलाषा नहीं रहेगी। धार्मिक
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (पुष्पिका) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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