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________________ आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' वक्षस्कार/सूत्र सेनापति सुषेण द्वारा छुए जाने पर चर्मरत्न शीघ्र ही नौका के रूप में परिणत हो गया । सेनापति सुषेण सैन्य-शिबिर में विद्यमान सेना सहित उस चर्म-रत्न पर सवार हुआ । निर्मल जल की ऊंची उठती तरंगों से परिपूर्ण सिन्धु महानदी को सेनासहित पार किया । सिन्धु महानदी को पार कर अप्रतिहत-शासन, वह सेनापति सुषेण ग्राम, आकर, नगर, पर्वत, खेट, कर्बट, मडम्ब, पट्टन आदि जीतता हुआ, सिंहल, बर्बर, अंगलोक, बलावलोक, यवन द्वीप, अरब, रोम, अलसंड, पिक्खुरों, कालमुखों तथा उत्तर वैताढ्य पर्वत की तलहटी में बसी हुई बहुविध म्लेच्छ जाति के जनों को, नैऋत्यकोण से लेकर सिन्धु नदी तथा समुद्र के संगम तक के सर्वश्रेष्ठ कच्छ देश को साधकरवापस मुड़ा । कच्छ देश के अत्यन्त सुन्दर भूमिभाग पर ठहरा । तब उन जनपदों, नगरों, पत्तनों के स्वामी, अनेक आकरपति, मण्डलपति, पत्तनपति-वृन्द ने आभरण, भूषण, रत्न, बहुमूल्य वस्त्र, अन्यान्य श्रेष्ठ, राजोचित वस्तुएं हाथ जोड़कर, जुड़े हुए तथा मस्तक से लगाकर उपहार के रूप में सेनापति सुषेण को भेंट की। वे बड़ी नम्रता से बोले- आप हमारे स्वामी हैं । देवता की ज्यों आप के हम शरणागत हैं, आप के देशवासी हैं। इस प्रकार विजयसूचक शब्द कहते हुए उन सबको सेनापति सुषेण ने पूर्ववत् यथायोग्य कार्यो में प्रस्थापित किया, नियुक्त किया, सम्मान किया और विदा किया । अपने राजा के प्रति विनयशील, अनुपहत-शासन एवं बलयुक्त सेनापति सुषेण ने सभी उपहार आदि लेकर सिन्धु नदी को पार किया । राजा भरत के पास आकर सारा वृत्तान्त निवेदित किया । प्राप्त सभी उपहार राजा को अर्पित किये । राजा ने सेनापति का सत्कार किया, सम्मान किया, सहर्ष विदा किया। तत्पश्चात् सेनापति सुषेण ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, अंजन आंजा, तिलक लगाया, मंगल -विधान किया । भोजन किया । विश्रामगृह में आया । शुद्ध जल से हाथ, मुँह आदि धोये, शुद्धि की । शरीर पर गोशीर्ष चन्दन का जल छिड़का, अपने आवास में गया । वहाँ मृदंग बज रहे थे । सुन्दर, तरुण स्त्रियाँ बत्तीस प्रकार के अभिनयों द्वारा वे उसके मन को अनुरंजित करती थीं । गीतों के अनुरूप वीणा, तबले एवं ढोल बज रहे थे । मृदंगों से बादल की-सी गंभीर ध्वनि निकल रही थी । वाद्य बजाने वाले वादक निपुणता से अपने-आप वाद्य बजा रहे थे । सेनापति सुषेण इस प्रकार अपनी ईच्छा के अनुरूप शब्द, स्पर्श, रस, रूप तथा गन्धमय मानवोचित, प्रिय कामभोगों का आनन्द लेने लगा। सूत्र-७७ राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाकर कहा-जाओ, शीघ्र ही तमिस्र गुफा के दक्षिणी द्वार के दोनों कपाट उद्घाटित करो । राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर सेनापति सुषेण अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ । उसने अपने दोनों हाथ जोड़े। विनयपूर्वक राजा का वचन स्वीकार किया । पौषधशाला में आया। डाभ का बिछौना बिछाया । कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर तेला किया, पौषध लिया । ब्रह्मचर्य स्वीकार किया । तेले के पूर्ण हो जाने पर वह पौषधशाला से बाहर निकला । स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये | अंजन आंजा, तिलक लगाया, मंगल-विधान किया । उत्तम, प्रवेश्य, मांगलिक वस्त्र पहने । थोड़े पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ एवं मालाएं हाथ में लीं। तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, उधर चला । माण्डलिक अधिपति, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, राजसम्मानित विशिष्ट जन, जागीरदार तथा सार्थवाह आदि सेनापति सुषेण के पीछे-पीछे चले, बहुत सी दासियाँ पीछे-पीछे चलती थीं। वे चिन्तित तथा अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, प्रत्येक कार्य में निपुण थीं, कुशल थीं तथा स्वभावतः विनयशील थीं। सब प्रकार की समृद्धि तथा द्युति से युक्त सेनापति सुषेण वाद्य-ध्वनि के साथ जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, वहाँ आया । प्रणाम किया । मयूरपिच्छ की प्रमानिका उठाई । कपाटों को प्रमार्जित किया -1 उन पर दिव्य जलधारा छोड़ी। आर्द्र गोशीर्ष चन्दन से हथेली के थापे लगाये । अभिनव, उत्तम सुगन्धित पदार्थों से तथा मालाओं से अर्चना की । उन पर पुष्प, वस्त्र चढ़ाये । ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक फैला, विस्तीर्ण, मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 34
SR No.034685
Book TitleAgam 18 Jambudwippragnapti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 18, & agam_jambudwipapragnapti
File Size3 MB
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