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आगम सूत्र १८, उपांगसूत्र-७, 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' ।
वक्षस्कार/सूत्र गोल चॅदवा ताना । स्वच्छ बारीक चाँदी के चावलों से, तमिस्रा गुफा के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि आठ मांगलिक अंकित किये । कचग्रह ज्यों पाँचों अंगुलियों से ग्रहीत पंचरंगे फूल उसने अपने करतल से उन पर छोड़े । वैडूर्य रत्नों से बना धूपपात्र हाथ में लिया । धूपपात्र का हत्था चन्द्रमा की ज्यों उज्ज्वल था, वज्ररत्न एवं वैडूर्यरत्न से बना था । धूप-पात्र पर स्वर्ण, मणि तथा रत्नों द्वारा चित्रांकन किया हुआ था । काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक उससे उठ रही थी। उसने उस धूपपात्र में धूप दिया - | फिर अपने बाएं घुटने को जमीन से ऊंचा रखा । दोनों हाथ मस्तक से लगाया । कपाटों को प्रणाम किया । दण्डरत्न को उठाया
वह दण्ड रत्नमय तिरछे अवयव-युक्त था, वज्रसार से बना था, समग्र शत्रु-सेना का विनाशक था, राजा के सैन्य-सन्निवेश में गड्ढो, कन्दराओं, ऊबड़-खाबड़ स्थलों, पहाड़ियों, चलते हुए मनुष्यों के लिए कष्टकर पथरीले टीलों को समतल बना देने वाला था । वह राजा के लिए शांतिकर, शुभकर, हितकर तथा उसके ईच्छित मनोरथों का पूरक था, दिव्य था, अप्रतिहत था । वेग-अपवादन हेतु वह सात आठ कदम पीछे हटा, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के किवाड़ों पर तीन बार प्रहार किया, जिससे भारी शब्द हुआ । इस प्रकार क्रौञ्च पक्षी की ज्यों जोर से आवाज कर अपने स्थान से कपाट सरके । यों सेनापति सुषेण ने तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोले । राजा को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित कर कहा-तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोल दिये हैं।
राजा भरत यह संवाद सुनकर अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ । राजा ने सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया । अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र तैयार करो । तब घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से परिगठित चातुरंगिणी सेना से संपरिवृत्त, अनेकानेक सुभटों के विस्तार से युक्त राजा उच्च स्वर में समुद्र के गर्जन के सदृश सिंहनाद करता हुआ अंजनगिरि के शिखर के समान गजराज पर आरूढ हुआ । सूत्र- ७८
तत्पश्चात् राजा भरत ने मणिरत्न का स्पर्श किया । वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दरतायुक्त था । चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था-वह तिखूटा, ऊपर नीचे षट्कोणयुक्त, अनुपम द्युतियुक्त, दिव्य, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट, सब लोगों का मन हरने वाला था-जो सर्व-कष्ट-निवारक था, सर्वकाल आरोग्यप्रद था । उस के प्रभाव से तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्य कृत उपसर्ग-कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे । उस को धारण करने वाले मनुष्य को शस्त्र स्पर्श नहीं होता । यौवन से सदा स्थिर रहता था, बाल तथा नाखून नहीं बढ़ते थे । भयों से विमुक्ती होती। राजा भरत ने इन अनुपम विशेषताओं से युक्त मणिरत्न को गृहीत कर गजराज के मस्तक के दाहिने भाग पर बाँधा। भरतक्षेत्र के अधिपति राजा भरत का वक्षःस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था । यावत् वह अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली, यशस्वी लगता था । मणिरत्न से फैलते हुए प्रकाश तथा चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हआ, अपने पीछे-पीछे चलते हए हजारों नरेशों से युक्त राजा भरत उच्चस्वर से समुद्र के गर्जन ज्यों सिंहनाद करता, तमिस्रागुफा के दक्षिणीद्वार आया । तमिस्रागुफा में प्रविष्ट हुआ।
फिर राजा भरत ने काकणी-रत्न लया । यह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर नीचे छः तलयुक्त था । ऊपर, नीचे एवं तिरछे-चार-चार कोटियों से युक्त था, उसकी आठ कर्णिकाएं थीं । अधिकारणी के आकारयुक्त था । वह अष्ट सौवर्णिक था-वह चार-अंगुल-परिमित था । विषनाशक, अनुपम, चतुरस्र-संस्थान-संस्थित, समतल तथा समुचित मानोन्मानयुक्त था, सर्वजन-प्रज्ञापक-था । जिस गुफा के अन्तर्वर्ती अन्धकार को न चन्द्रमा नष्ट कर पाता था, न सूर्य ही जिसे मिटा सकता था, न अग्नि ही उसे दूर कर सकती थी तथा न अन्य मणियाँ ही जिसे अपगत कर सकती थीं, उस अन्धकार को वह काकणी-रत्न नष्ट करता जाता था । उसकी दिव्य प्रभा बारह योजन तक विस्तृत थी । चक्रवर्ती के सैन्य-सन्निवेश में रात में दिन जैसा प्रकाश करते रहना उस मणि-रत्न का विशेष गुण था । उत्तर भरतक्षेत्र को विजय करने हेतु उसी के प्रकाश में राजा भरत ने सैन्यसहित तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया ।
राजा भरत ने काकणी रत्न हाथ में लिए तमिस्रा गुफा की पूर्व दिशावर्ती तथा पश्चिम दिशावर्ती भित्तियों पर मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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